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Matrubhoomi | पंचशील को भारत ने शांति समझौता समझ कर दी भूल | China-Tibet-Nehru Saga 

Matrubhoomi | पंचशील को भारत ने शांति समझौता समझ कर दी भूल | China-Tibet-Nehru Saga 

एक बच्चा जो अपने झोले में सामान समेट रहा है तो मां तपाक से पूछ पड़ती है- कहां जाने की तैयारी हो रही है? जवाब देता है एक ऐसी सर्वोच्च पीठ की तरफ जाने का जिसे सुनकर यकीन न हो। फिर कुछ लोग पहुंचते हैं और उसके सामने एक-एक कर सामान सजा देते हैं। वो कुछ चुनता है, कुछ फेंकता है। फिर उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है। केवल उसकी ही नहीं बल्कि उसके पूरे मूल्क की भी जिंदगी बदल जाती है। एक महाशक्ति के खूंखार पंजे जो उसकी तरफ बढ़ चले थे। 14वें दलाई लामा तेंजिन ग्यात्सो को तिब्बत छोड़ना पड़ा। उन्होंने एक ऐसी जगह बस्ती बसाता है, जहां का पानी दूध से भी ज्यादा मीठा बताया गया है। 1959 में दलाई लामा अपने कई समर्थकों के साथ भारत आए। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 23 साल की थी। उनके साथ तमाम चुशी लड़ाके भी कथित तौर पर भारत आ गए। दलाई लामा को भारत में शरण मिलना चीन को अच्छा नहीं लगा। कैसे तिब्बत ने चीन के आक्रमण से पहले भारत से सहायता मांगी, चीन से मुकाबला करने वाले भारतीय विशेष बलों में तिब्बतियों की भूमिका क्या रही, पंचशील को भारत ने शांति समझौता समझ कर दी भूल, तमाम सवालों के जवाब यहां जानेंगे। 

तिब्बत को चीन की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी 

8 जनवरी 1949 को तिब्बती सरकार के प्रतिनिधि त्सेपोन शाकबापा ने प्रधानमंत्री नेहरू से दिल्ली में मुलाकात कर तिब्बत की स्वाधीनता की मदद मांगी थी। उन्होंने तिब्बत के खस्ता आर्थिक हालातों की ओर से ध्यान दिलाते हुए प्रधानमंत्री से दो मामलों में सहायता मांगी। भारत और तिब्बत के बीच मुक्त व्यापार जिससे तिब्बली माल भारत में बेचा जा सके। इसके अलावा व्यापार के लिए तिब्बत को सोना खरीदना था, जिसके लिए उन्होंने भारत सरकार से दो मिलियन अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता मांगी। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नेहरू ने दोनों ही प्रस्तावों को चीन के दबाव में नामंजूर कर दिया। इसके बाद तिब्बत के पास कोई विकल्प नहीं बचा और उसे चीन की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। साल 1951 में चीन के साथ हुए एक समझौते के तहत तिब्बत को स्वायत्त देश कहा गया। 

शिमला में बैठक 

1912 ईस्‍वी में चीन से मांछु शासन का अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को दोबारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था। सन् 1913-14 में बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इसमें पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं उसे इनर तिब्‍बत कहा गया। जबकि पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा उसे आउटर तिब्‍बत कहा गया। जो इतिहास की भयंकर भूल है। गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर, 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए लिखा- “मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि चीन सरकार हमें शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडम्बर में उलझा रही है। मेरा विचार है कि उन्होंने हमारे राजदूत को भी “तिब्बत समस्या शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने” के भ्रम में डाल दिया है। मेरे विचार से चीन का रवैया कपटपूर्ण और विश्वासघाती जैसा ही है।” सरदार पटेल ने अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को “किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा” कहा है। 

आज हमारी करें मदद, नहीं तो आगे आपको पड़ सकता है भारी 

तिब्बत के वित्त मंत्री त्सेपोन शाकबापा ने भारत से मदद की गुहार लगाते हुए पत्र भी लिखा। इसमें कहा गया कि चीन जबरन हमारे इलाके में घुस आया है। भारत चीन बॉर्डर की कुल लंबाई 3488 किमी है। ये सीमाएं जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुज़रती है। जम्मू-कश्मीर में 1597, अरुणाचल से 1126 किमी, सिक्किम से 200 किमी, उत्तराखंड से 345 किमी और हिमाचल प्रदेश से 200 किमी की सीमा जुड़ती है। उस वक्त कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश के बीच की 3500 किलोमीटर वाली भारत और तिब्बत की सीमा पर 80 सैनिक उसकी सुरक्षा में तैनात हैं। अगर आप आज हमें सपोर्ट नहीं करेंगे तो आगे चलकर ये आपके लिए भी नुकसानदायक हो सकता है। वर्तमान हालात सभी के सामने हैं। वर्तमान में सीमा पर सैनिकों की संख्या 8 लाख के करीब हो गई है। 

पंचशील को भारत ने शांति समझौता समझा 

हिंदी-चीनी भाई-भाई… 69 साल पहले साल 1954 में लगाए गए थे। 29 अप्रैल के दिन पंचशील समझौते की नींव रखी गई थी। ये समझौता चीन के क्षेत्र तिब्बत और भारत के बीच व्यापार और आपसी संबंधों को लेकर हुआ था। भारत ने इसे ग्रेट डील बताते हुए 25 सालों के लिए आगे बढ़ाने की बात कही। लेकिन चीन की तरफ से पांच साल की समयसीमा के बाद आठ वर्ष पर हामी भरी गई। 1954 के पांच सालों के बाद 1959 में तिब्बत पर चीनी आक्रमण देखने को मिला। फिर आठ सालों के बाद 1962 में भारत पर चीन ने हमला कर दिया। 

चीन ने कैसे भारत को अपनी बातों से उलझाया 

जब चीनी सैनिक तिब्बत में दाखिल हुए उसी वक्त चीनी प्रधानमंत्री चाउइन लाई भारत के दौरे पर आए। उन्होंने भारत से देश के हालात के बारे में जिक्र करते हुए मदद मांगी। चीन के तिब्बत सप्लाई के लिए जो रास्ता है उसमें काफी वक्त लगता है। अगर कलकता पोर्ट को खोल दिया जाए। जिससे हम शंघाई से कलकता पोर्ट के रास्ते नाथुला पोस्ट तक सप्लाई आसानी से पहुंचा सकेंगे। 1962 में भारत इस बात पर सहमत हो गया। इसके बाद खाद्य सामग्री से लेकर हथियार, गोला बारूद तक सभी की सप्लाई कलकता के रास्ते हुई। फिर तिब्बत में चल रहे अभियान को बुरी तरह कुचला गया। ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत के साथ चीन की कोई सीमा नहीं लगती थी। 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके बाद से अपने विस्तारवाद की पालिसी शुरू की। फिर तिब्बत के साथ विवाद शुरू हुआ। ऐतिहासिक रूप से चीन की सीमा भारत के साथ नहीं लगती थी। भारत की सीमा अधिकांशतः तिब्बत और कुछ हद तक मध्य एशिया के पूर्वी तुर्किस्तान में साथ लगती थी। कम्युनिस्ट चीनी शासन ने सोशलिस्टों को ताईवान खदेड़ दिया। उन्होंने तिब्बत और झिंजियांग पर भी अपना कब्जा स्थापित किया। जिसके बाद अपनी विस्तारवाद की नीति को बढ़ाते हुए चीन जब भारत से लगती सीमावर्ती क्षेत्रों के पास पहुंचा उसके बाद ही ये विवाद शुरू हुआ। 

चंद पहाड़ी शिखरों पर कब्जे के खातिर युद्ध क्यों? 

आजाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री का ऐतिहासिक बयान का भी जिक्र करना जरूरी है। राज्य सभा में (10 सितम्बर 1959) जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि इससे बढ़कर मूर्खता नहीं होगी कि दो महान राष्ट्र (भारत और चीन) चंद पहाड़ी शिखरों पर कब्जे के खातिर युद्ध करें। इन्हीं बंजर पथरीली इलाके में लद्दाख से तिब्बत को शिनजियांग से जोडती हुई सड़क का चीन ने निर्माण किया। तभी निकट में ही लद्दाख के स्पंगगुर दर्रे में भारतीय पुलिस टुकड़ी को चीन की सेना ने मार डाला था। यह वास्तविक नियंत्रण रेखा के समीप हुआ था। इस पर नेहरू का बयान लोकसभा में (28 अगस्त 1959) आया था। प्रधान मंत्री ने स्वीकारा कि चीन के प्रधान मंत्री झाऊ एनलाई ने वादाफरामोशी की थी। सीमा के बारे में कहा कुछ, किया कुछ। 

दलाई लामा ने एक सैनिक का वेश धारण किया 

17 मार्च 1959 को 23 साल के दलाई लामा ने खुद को एक सैनिक के रूप में प्रच्छन्न किया और दलाई लामा के महल के बाहर भीड़ के बीच से निकल गए, जिसे उन्होंने फिर कभी नहीं देखा था। उनके साथ जाने वालों में उनकी मां, बहन, छोटा भाई और कई शीर्ष अधिकारी शामिल थे। उन्होंने बिना रुके दो दिन और दो रात तक पैदल और घोड़े पर यात्रा की। उन्होंने 1,500 फुट लंबी ब्रह्मपुत्र नदी को पार करने के लिए याक की खाल वाली एक नाव का इस्तेमाल किया और खच्चर एक महीने की आपूर्ति ले गए। इसके बाद समूह पैदल ही चलता रहा, केवल रात में कठोर हिमालयी इलाके में चलता रहा। 

चीनी सैनिकों पर बढ़त 

उन्होंने चीनी सैनिकों पर बढ़त बना ली थी, जिन्हें दो दिन बाद तक इस बात का एहसास नहीं था कि दलाई लामा गायब हो गए हैं, जब उन्होंने ज़मीनी और हवाई जाल बिछाया और उनके लिए मठों की तलाशी ली। उन्होंने चीनी सैनिकों पर बढ़त बना ली थी, जिन्हें दो दिन बाद तक इस बात का एहसास नहीं था कि दलाई लामा गायब हो गए हैं, जब उन्होंने ज़मीनी और हवाई जाल बिछाया और उनके लिए मठों की तलाशी ली। 3 अप्रैल, 1959 को, भारत ने तिब्बत के नेता को शरण दी और उत्तरी हिल स्टेशन धर्मशाला में निर्वासित सरकार स्थापित करने की अनुमति दी, जो पहले से ही चीनी दमन से भाग रहे हजारों तिब्बती निर्वासितों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल था। 

तिब्बत को पुनः प्राप्त करने के लिए अभियान 

उन्होंने तिब्बत को पुनः प्राप्त करने के लिए एक अभियान शुरू किया, जो धीरे-धीरे अधिक स्वायत्तता के आह्वान में परिवर्तित हो गया। 2009 के बाद से तिब्बत में बीजिंग की उपस्थिति के विरोध में 150 से अधिक तिब्बतियों ने खुद को आग लगा ली है, जिनमें से अधिकांश की मौत हो गई है। दलाई लामा ने 2011 में राजनीति से संन्यास ले लिया था, लेकिन धर्मशाला में ही रहते हैं। उन्होंने 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार जीतकर अपने शांतिवादी रुख के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हासिल की है। 

भारतीय विशेष बलों में तिब्बतियों की भूमिका 

1957 की शुरुआत में गोम्पो ताशी आंद्रुगत्संग की अगुआई में सेंट्रलाइज्ड आर्म्ड रेसिस्टेंस (प्रतिरोध) संगठित हुआ। इसका नाम ‘चुशी गंगद्रुक’ (चार नदियां, छह रेंज) रखा गया। 1958 के मध्य में, मुख्य तौर पर पूर्वी तिब्बत की सुरक्षा के लिए खड़ा किया गया यह रेसिस्टेंस फोर्स, ऑल-तिब्बत फोर्स में बदल गया और इसका नाम नेशनल वॉलन्टियर आर्मी (NVDA) रखा गया। लेकिन इसकी पहचान ‘चुशी गंगद्रुक’ के तौर पर ही अधिक बनी रही। ऐसा कहा जाता है कि चुशी गांगड्रुक के गुरिल्ला लड़ाकों से अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने संपर्क किया। जिसके बाद सीआईए ने चुशी के लड़ाकों को ट्रेनिंग देने के लिए पहले तत्कालीन ईस्ट पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में कैंप लगाए। फिर बाकायदा अपने देश में कैंप चलाए। लड़ाकों को वहां ले जाकर ट्रेनिंग दी जाती, फिर वापस तिब्बत भेज दिया जाता। अमेरिका की चुस्त-दुस्त इंटेलिजेंस एजेंसी से ट्रेनिंग पाए तिब्बत के लड़ाकों को लगा कि अब तो वो चीन को तिब्बत से खदेड़ देंगे। 20 हजार के आस-पास संख्या बल भी हो गई थी और साथ ही ये भ्रम भी कि ट्रेनिंग देने वाला अमेरिका हथियारों से भी उसकी मदद करेगा। लेकिन ऐसा हो न सका और विद्रोह असफल हो गया। जिसके बाद साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया। उनके साथ तमाम चुशी लड़ाके भी कथित तौर पर भारत आ गए। 14 नवंबर 1962 को ये फोर्स अस्तित्व में आई। शुरू में इसमें 5,000 जवान थे जिनकी ट्रेनिंग के लिए देहरादून के चकराता में नया ट्रेनिंग सेंटर बनाया गया। शुरुआत में पहाड़ों पर चढ़ने और गुरिल्‍ला युद्ध के गुर सीखे। इनकी ट्रेनिंग में रॉ के अलावा अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का भी अहम रोल था। यूनिट को बाकी सेना से सीक्रेट रखा गया था, और एक राज के रूप में, यह दिखाने का प्रयास किया गया कि काल्पनिक 12 गोरखा राइफल्स के सैनिकों को पैरा-जंपिंग में प्रशिक्षित किया जा रहा था। इस फोर्स की खास बात ये है कि इसमें भारत के रह रहे तिब्बती मूल के जवान शामिल होते हैं। जिन्हें Mountain Warfare में महारत हासिल होती है। 

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