ये दलील, दुबई में चल रहे यूएन जलवायु सम्मेलन कॉप28 में शिरकत करने वाले आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों ने मंगलवार को सामने रखी.
दुबई के ऐक्सपो सिटी में चल रहा दो सप्ताह का संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन अपने मध्य बिन्दु पर पहुँचा है. मंगलवार को इस सम्मेलन में उपस्थित लोगों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर क़दम बढ़ाने में, उन लोगों और समुदायों की चिन्ताओं पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाना चाहिए, जो इस संक्रमण से सबसे अधिक प्रभावित होंगे.
अधिकांश सरकारी मंत्रियों और विश्व नेताओं ने अपने कार्यक्रम पूरे कर लिए हैं, ऐसे में प्रतिष्ठित गुम्बद दार स्थल के इर्दगिर्द तात्कालिकता की भावना पैदा हो रही है.
COP28 जलवायु वार्ताकारों ने अगले मंगलवार, 12 दिसम्बर को सम्मेलन की समापन रेखा तक सफल दौड़ के लिए, आवश्यक गहन जलवायु कूटनीति को तेज़ कर दिया है.
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, कॉप28 सम्मेलन, आगामी मंगलवार को समाप्त होने की अपेक्षा है.
ये वार्ताएँ मुख्य रूप से तीन प्रमुख मुद्दों पर केन्द्रित हैं: जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीक़े से समाप्त करना या कम करना, जलवायु प्रभावों के प्रति सहनशीलता निर्माण और जलवायु आपदा से निपटने वाले कमज़ोर देशों के लिए वित्तीय सहायता, जबकि जलवायु परिवर्तन में उनकी या तो मामूली भूमिका है या इसमें उनका कोई योगदान ही नहीं है.
यूएन न्यूज़ के सहयोगियों ने, मंगलवार की सुबह इन मांगों के लिए पर्याप्त समर्थन देखा – और सुना – जब उन्होंने ऐक्सपो सिटी के विशाल परिसर में मीडिया केन्द्र की तरफ़ क़दम बढ़ाए.
विरोध प्रदर्शन, अलबत्ता कम
बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को, अक्सर वार्षिक संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता की एक प्रमुख विशेषता के रूप में देखा जाता है, मगरसंयुक्त अरब अमीरात के सबसे बड़े शहर दुबई में व्यापक प्रदर्शन, काफ़ी हद तक ग़ायब हैं.
लेकिन सम्मेलन के शुरुआती दिनों की अपेक्षाकृत शान्ति के बाद, प्रदर्शनकारी धीरे-धीरे, मगर अपनी आवाज़ें बुलन्द करने के लिए, अपने प्रदर्शन शुरू कर रहे हैं.
प्रदर्शनकारियों के एक छोटे से समूह ने, मंगलवार को यूएन प्रबन्धित नील क्षेत्र में पहुँचकर, उत्साह के साथ नारेबाज़ी की जिनमें तेल व गैस कम्पनियों की मौजूदगी का विरोध किया.
प्रदर्शनकारियों की पुकारों में, “1.5-डिग्री लक्ष्य”, “एनडीसी”, “नैट-ज़ीरो” और “न्यायसंगत परिवर्तन” जैसे नारे शामिल थे, जो मुद्दे चर्चा के लिए मंगलवार के एजेंडे में थे.
न्यायोचित परिवर्तन क्या है?
मोटे तौर पर, ‘न्यायसंगत परिवर्तन’ का अर्थ है – तेल और गैस द्वारा संचालित दशकों के आर्थिक विकास के बाद, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था अब कार्बन मुक्तिकरण की ओर बढ़ रही है, तो इस बढ़त को इस तरह से किए जाने की आवश्यकता है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि जीवाश्म ईंधन पर निर्भर श्रमिकों व समुदायों को पीछे नहीं छोड़ दिया जाए.
उनके भविष्य और रोज़गार वाले कामकाजों की सुरक्षा को नैट-शून्य दुनिया में संरक्षित किया जाना चाहिए – जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को यथासम्भव शून्य के क़रीब लाना शामिल है.
लेकिन एक भारतीय पर्यावरण विशेषज्ञ और विज्ञान व पर्यावरण केन्द्र की महानिदेशक सुनीता नारायण का मानना है कि इस शब्द का इस्तेमाल बहुत ही अदूरदर्शी तरीक़े से किया जा रहा है.
‘मायोपिक लेंस’ के ज़रिए बदलाव
सुनीता नारायण ने यूएन न्यूज़ के साथ बातचीत में कहा, “कोयला श्रमिकों के लिए, खनिकों के लिए, थर्मल पावर पॉइंट श्रमिकों के लिए न्यायसंगत परिवर्तन होना बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन केवल संक्रमणकालीन बढ़त का मुद्दा नहीं है.”
“यह इस तथ्य के बारे में है कि हमें एक वैश्विक परिवर्तन की आवश्यकता है और… दुनिया के हमारे हिस्से को, ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर बढ़त बना सके.”
उन्होंने कहा, “धनी, औद्योगिक दुनिया को [जीवाश्म ईंधन] ऊर्जा के उपयोग को कम करने की ज़रूरत है और उस संक्रमण में, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह उचित हो. और इसी तरह हमें परिवर्तन की व्याख्या करनी चाहिए.”
“एक टिकाऊ दुनिया बनाने के लिए परिवर्तन निष्पक्ष और न्यायसंगत होना चाहिए.”
न्यायोचित परिवर्तन की परिभाषा पर भी इस तरह के मतभेद, इसमें शामिल जटिलताओं और वार्ताकारों के लिए आगे सम्भावित कठिन लड़ाई का संकेत देते हैं.
इस बीच, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव लगातार फैल रहे हैं, जो दुनिया के सुदूर कोनों तक पहुँच रहे हैं.
यहाँ तक कि उन समुदायों के लिए भी जिनकी, इस संकट के उत्पन्न होने में बहुत कम भूमिका है, मगर अब इसका ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं.
जलवायु न्याय
जलवायु न्याय का मुद्दा, COP28 में लगभग हर दिन किसी न किसी रूप में एजेंडे में शामिल है जो जलवायु परिवर्तन पर निर्णय लेने और कार्रवाई के मूल में अधिक समानता और मानवाधिकारों का आहवान करता है.
प्रभावित लोगों में भी, कुछ समूह और समुदाय अधिक प्रभावित हैं, जैसेकि महिलाएँ, और विकलांग और आदिवासी जन.
इन समूहों के कुछ प्रतिनिधियों ने, मंगलवार को अतिरिक्त कार्यक्रमों और चर्चाओं में भाग लिया, जिनमें आदिवासी समूहों के कुछ प्रतिनिधि भी थे.
गुरुंग आदिवासी समुदाय नेपाल के पश्चिमी क्षेत्र में हिमालय की तलहटी में बसता है. उस समुदाय की एक प्रतिनिधि प्रतिमा गुरुंग, सात साल की उम्र में एक ट्रक दुर्घटना में अपना हाथ खोने के बाद विकलांग हो गई थीं.
प्रतिमा गुरुंग ने, नेपाल के राष्ट्रीय आदिवासी विकलांग महिला संगठन (NIDWAN) की अध्यक्ष और विकलांगता वाली आदिवासी महिलाओं के अधिकारों पर एक प्रमुख आवाज के रूप में दुबई में कॉप28 में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है. उन्होंने दुबई में ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत कि है जिनमें महिलाओं के अधिकारों, विकलांग व्यक्तियों और आदिवासी समुदायों के बारे में चर्चा की है.
सभी आवाज़ें सुनी जानी चाहिए
प्रतिमा गुरुंग ने यूएन न्यूज़ से बातचीत में अफ़सोस जताया कि, “जब आप एक महिला हैं, तो आपके पास पितृसत्तात्मक मानदंडों और प्रणालियों के बीच जीवन जीते हैं. जब आप एक विकलांग महिला हैं, तो पहुँच, सार्थक भागेदारी और जुड़ाव का मुद्दा; और विकलांगता को एक रूढ़िवादिता या कलंक के रूप में देखा जाना जैसी धारणाएँ, समाज में अब भी मौजूद हैं.
“और एक आदिवासी महिला के रूप में, आपके सामने अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, संसाधनों और अपने सामूहिक अधिकारों का प्रयोग करने से सम्बन्धित चुनौतियाँ हैं.”
ऐसी अनेक चुनौतियों का सामना करने वाले लोगों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हुए, COP28 के लिए उनकी क्या इच्छा है?
इस पर उनका कहना था, “बातचीत इस तरह से की जानी चाहिए जिसमें आदिवासी लोगों और विकलांग महिलाओं की चिन्ताएँ शामिल हों और उनकी सार्थक भागेदारी सुनिश्चित हो, साथ ही उनकी आवाज़ सभी हितधारकों द्वारा सुनी जानी चाहिए.”