Loksabha Election 2024: 1962 के लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को शायद ये लगा कि कांग्रेस के वी.के. कृष्ण मेनन, जे.बी. कृपलानी को नहीं हरा पाएंगे। फिर क्या था, नेहरू ने फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार को प्रचार में उतार दियाष। उत्तरी मुंबई लोक सभा सीट पर मेनन का पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी से सीधा मुकाबला था। वो चुनाव देश में काफी चर्चित हुआ था।
दिलीप कुमार के अनुसार, “मैंने पहली बार 1962 में लोक सभा चुनाव में किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार किया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुझे खुद फोन करके कहा था कि ‘क्या मैं समय निकाल कर बंबई में कांग्रेस ऑफिस में जाकर वी.के.कृष्ण मेनन से मिल सकता हूं? वे उत्तरी मुंबई से चुनाव लड़ रहे हैं। उनके खिलाफ एक बड़े नेता जे.बी. कृपलानी लड़ रहे थे।”
दिलीप कुमार की आत्म कथा ‘वजूद और परछाई’
उन्होंने आगे कहा, “मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया। क्योंकि आगा जी के बाद मैं सबसे ज्यादा आदर व सम्मान उन्हीं का करता था।”
आत्म कथा ‘वजूद और परछाई’ में दिलीप साहब लिखते हैं, “जैसा कि पंडित जी ने कहा, मैं जुहू में कांग्रेस ऑफिस गया। मैं मेनन का इंतजार कर रहा था कि एक आदमी तेजी से अंदर आया और अपना परिचय देते हुए बोला कि मेरा नाम रजनी है और मैं रोजी-रोटी के लिए वकालत करता हूं। मैं उठ खड़ा हुआ और कहा कि ‘मेरा नाम युसुफ है और मैं रोजी-रोटी के लिए कुछ नहीं करता हूं।”
दिलीप कुमार याद करते हैं, “उसी समय कृष्ण मेनन आ गए। मुझे देख कर मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया, तो रजनी यानी रजनी पटेल हैरान रह गए। कृष्ण मेनन ने पंडित जी के फोन के बारे में बताया और कहा कि मुझे मालूम हुआ कि आप यहां ऑफिस में आने वाले हैं। बाद में मेनन ने रजनी का दिलीप कुमार से परिचय कराया, तो वे माफी मांगने लगे कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं था। उन्होंने कहा, “मैं फिल्में नहीं देखता।”
मेनन ने दिलीप कुमार से कहा कि चुनावी मुकाबला कड़ा है। वे चाहते थे कि मैं फिल्म उद्योग के लोगों को चुनाव रैली में आने के लिए कहूं।
1962 का सबसे नाटकीय चुनाव
1962 का वो चुनाव शहर का सबसे नाटकीय चुनाव था। दिलीप कुमार कहते हैं, “मैंने सबसे बड़ी राजनीतिक सभा को मुंबई के कूपरेज मैदान में संबोधित किया। रजनी और मैं कार से जा रहे थे। मुझे इसके बारे में बिल्कुल पता नहीं था कि मुझे भाषण देना है। मरीन ड्राइव के पास रजनी ने मुझसे कहा कि मौजूद लोगों के सामने आपको भाषण देना है। तब मैं कुछ खीज गया। मैंने कहा कि मैं कोई नेता नहीं हूं कि बिना किसी तैयारी के जनता के सामने बोल पाऊं।”
उन्होंने मेरे हाथ को थपथपाते हुए कहा कि ‘आपसे राजनीतिक भाषण की उम्मीद किसे है? उसे नेताओं के लिए छोड़ दीजिए। आप तो लोगों के सामने दिलीप कुमार की तरह बोलिए।’
दिलीप लिखते हैं, “मौके पर पहुंचते ही देखा कि लोग दिलीप कुमार का नाम ले रहे थे और शोर मचा रहे थे। मैं जब जनता के सामने आया, तो उनकी खुशी और जोश भरी चीख-पुकार और साफ सुनाई देने लगी। मैंने गहरी सांस ली और दस मिनट बोला। जब मेरा भाषण खत्म हुआ, तो तालियों की आवाज बहरा कर देने वाली थीं। इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए।
वे बताते हैं कि बाद में कांगेस के लिए चुनाव प्रचार करना मेरा एक नियमित काम बन गया, क्योंकि कृष्ण मेनन जीत गए थे।
दक्षिणपंथी और वामपंथी आमने-सामने
दरअसल वो एक ऐसा चुनाव था, जहां दक्षिणपंथी और वामपंथी आमने-सामने थे। अखबारों खास कर वीकली मैग्जीन ने जबर्दस्त भूमिका निभाई, लेकिन दिलीप कुमार, तो दिलीप कुमार ही थे।
कृष्ण मेनन 1957 में उसी क्षेत्र से लोक सभा चुनाव जीत चुके थे, लेकिन 1962 के चुनाव में दिग्गज कृपलानी के उम्मीदवार बन जाने के कारण जवाहर लाल नेहरू अपने मित्र मेनन के लिए चिंतित हो उठे थे। वे कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने फिल्म अभिनेता की मदद ली।
जब देश को आजादी मिल रही थी, तब जे.बी. कृपलानी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, लेकिन कृपलानी को जब लगा कि प्रधान मंत्री देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस अध्यक्ष से राय नहीं लेते, तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया।
कृपलानी के नेहरू से मतभेद
1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद तो उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दी। बता दें कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी. कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। हालांकि, प्रधान मंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर,1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।
नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था। ऐसा गांधी जी के कहने पर हुआ था, अन्यथा नेहरू और कृपलानी के विचार नहीं मिलते थे। लगभग परस्पर विरोधी विचार वाले ये दोनों नेता थे।
वामपंथी थे मेनन
दूसरी ओर, मेनन वामपंथी थे। ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे चुके थे। 1953 में राज्य सभा के सदस्य बने और बाद में रक्षा मंत्री। चीन के हाथों भारत की हार के बाद मेनन को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
1967 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट तक नहीं दिया। प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि मेनन को टिकट मिले, लेकिन तब पार्टी पर प्रधान मंत्री का असर बहुत कम था। बाद में 1969 में वामपंथियों की मदद से वह पश्चिम बंगाल से एक उप-चुनाव के जरिए लोक सभा पहुंचे थे।