47 वर्षीय हरिपाल, सिंह उत्तर प्रदेश के नंजली किठौर गाँव में एक पॉलीहाउस में खेती का काम करते हैं. उनके पॉलीहाउस में खेती के लिए मल्च फ़िल्में, बीज के लिए बोरियाँ, कीटनाशकों की बोतलें, सिंचाई के लिए छोटे-लम्बे पाइप, मंडी में ले जाने के लिए थैले, सभी प्लास्टिक के हैं.
हरिपाल सिंह बताते हैं, “खेती का ज़्यादातर सामान प्लास्टिक में ही आता है, ये उत्पाद सस्ते होते हैं, एयर टाइट रहते हैं, जिससे भंडारण क्षमता बढ़ जाती है और उन्हें बाज़ार में बेचने के लिए ले जाने में भी आसानी होती है.”
लेकिन इस्तेमाल के बाद प्लास्टिक की इन विभिन्न वस्तुओं का होता क्या है?
हरिपाल सिंह के मुताबिक़, “मल्च फ़िल्में तो दो तीन साल तक चलती हैं, बाक़ी प्लास्टिक को बाहर कूड़े में फेंक देते हैं या इकट्ठा करके जला देते है.”
कृषि व उससे जुड़े क्षेत्रों, यानि फ़सल व पशुधन उत्पादन, वानिकी, मत्स्य पालन एवं अन्य जलीय कृषि आदि में प्लास्टिक का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता रहा है.
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संस्था (एफ़एओ) के अनुसार, 2019 में कृषि मूल्य श्रृंखलाओं में वैश्विक स्तर पर 1.25 करोड़ टन प्लास्टिक उत्पादों का उपयोग किया गया.
लेकिन इस्तेमाल के बाद खुले स्थानों में फेंक दिए जाने पर, इनसे पर्यावरण के लिए ख़तरा पैदा हो रहा है और मिट्टी में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कण जमा होने से, स्वास्थ्य जोखिम बढ़ता जा रहा है.
भारत में संयुक्त राष्ट्र के कृषि संगठन (एफ़एओ) में वरिष्ठ क़ानूनी शोधकर्ता, नीति विश्लेषक व परियोजना प्रबन्धक शालिनी भूटानी बताती हैं, “कृषि उत्पादन के क्षेत्र में हर एक स्तर पर प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है. अगर देखा जाए तो बहुत ही गिने-चुने देश है जहाँ इस कूड़े को एकत्रित कर उचित ढंग से निपटान किया जाता है. वरना या तो उन्हें जलाया जाता है, मिट्टी में दबा दिया जाता है या फिर बस खुले स्थानों में फेंक दिया जाता है.”
” इतने सालों के इस्तेमाल के बाद, अब इसने एक विशाल समस्या का रूप ले लिया है, क्योंकि इससे न केवल मिट्टी व पानी की गुणवत्ता पर असर हो रहा है, बल्कि यह एक खाद्य सुरक्षा व कृषि उत्पादकता व भावी पीढ़ी के भविष्य का मुद्दा भी बन गया है.”
जलीय कृषि में प्लास्टिक प्रदूषण
केवल भूमि पर ही नहीं, जलीय कृषि उत्पादन में भी हर स्तर पर प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है, फिर चाहे वो टैंक, जाल, फ़ीड बैग, लाइनर, पाइपिंग, पॉलीस्टाइनिन बक्से, उत्पाद परिवहन या फिर रासायनिक के भंडारण के लिए हो.
एफ़एओ के अनुमानों के मुताबिक़ अभी तक यह माना जाता रहा है कि महासागरों में पाए जाने वाला लगभग 80 प्रतिशत प्लास्टिक कचरा, जलीय कृषि जैसे समुद्री उद्योगों के बजाय भूमि-आधारित स्रोतों से उत्पन्न होता है. लेकिन अब यह स्पष्ट हो रहा है कि विभिन्न प्रकार के मछली पकड़ने वाले गियर भी समुद्र को नुक़सान पहुँचा सकते हैं.
शालिनी भूटानी कहती हैं, “जल कृषि में जो मछुआरे और विशेषकर जो बड़े ट्रोलर्स हैं, उनमें जिन फिशिंग गियर का इस्तेमाल होता है, उसे एक ख़ास नाम दिया गया है ‘Abandoned, lost, or otherwise discarded fishing gear” यानि फेंका हुआ, खोया हुआ या त्यागा हुआ, मछली पकड़ने का सामान (ALDFG) – यह एक बहुत बड़ा मसला बनकर सामने आया है.”
इसके अलावा, रोज़मर्रा में सामान्य प्लास्टिक उत्पाद भी उपयोग किए जाते हैं, जैसेकि मछली पकड़ने जाते समय प्लास्टिक के कप और पीने के पानी की बोतलें. इनमें से कई उत्पाद आम दिन में मछुआरों के लिए आवश्यक बन गए हैं, लेकिन इस सामग्री की सूची की समीक्षा की जाए तो कुल प्लास्टिक कचरे की मात्रा आश्चर्यजनक होगी.
आँकड़ों का अभाव
अधिकाँश वर्तमान आँकड़ें, समुद्र तट के सफ़ाई अभियानों, तटीय सर्वेक्षण और निकाले गए कचरे की उत्पत्ति का निर्धारण करने के लिए उसके पृथ्क्कीकरण से आते हैं. लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ हैं और इसपर बहुत काम किए जाने की आवश्यकता है.
जलीय कृषि क्षेत्र में प्लास्टिक कचरे का उत्पादन और प्रबन्धन एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है. प्लास्टिक प्रदूषण से समुद्री जैव-विविधता और समुद्री उत्पादों से स्वास्थ्य जोखिमों का भी ख़तरा बढ़ रहा है. तटीय जल में माइक्रोऔर नैनोप्लास्टिक्स की उपस्थिति से जलीय कृषि व पारिस्थितिकी पर बुरा असर पड़ रहा है.
जलीय कृषि उत्पादन पर प्लास्टिक का प्रभाव बेहद जटिल है – प्लास्टिक के आकार और उनमें मौजूद रसायनों के मिश्रण के आधार पर, इसका जानवरों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है.
मीसोप्लास्टिक्स जलीय जानवरों के लिए जोखिम नहीं बनते, क्योंकि अपने बड़े आकार के कारण वो आहार एवं श्वसन बाधाओं को पार करने में असमर्थ होते हैं. हालाँकि, पेट और आँतों में माइक्रोप्लास्टिक इकट्ठा होने पर कुछ प्रजातियों में पोषण व वृद्धि घट सकती सकती है. इसके विपरीत, बहुत महीन, सूक्ष्म और नैनोप्लास्टिक्स, आँत की बाधा को पार करने में सक्षम होते हैं और कुछ प्रजातियों में विकास और tissue गठन में बदलाव ला सकते हैं.
प्लास्टिक सन्धि की तैयारी
मार्च 2022 में, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा में, समुद्री पर्यावरण सहित प्लास्टिक प्रदूषण पर क़ानूनी रूप से बाध्यकारी अन्तरराष्ट्रीय सन्धि विकसित करने के लिए एक ऐतिहासिक प्रस्ताव अपनाया गया था, और इस प्रस्तावित सन्धि के लिए, 2024 के अन्त तक वार्ता को पूरा किया जाना है.
प्रस्तावित प्लास्टिक सन्धि के वर्तमान संशोधित मसौदे में कृषि खाद्य प्रणालियों का भी ज़िक्र किया गया है.
एफ़एओ, शुरुआत से ही वार्ता की क़रीब से निगरानी कर रहा है. एफ़एओ, बैठकों में एक पर्यवेक्षक के रूप में भाग लेता है और एक ऐसी सन्धि पर पहुँचने के लिए सदस्यों का समर्थन कर रहा है, जो प्लास्टिक को स्थाई रूप से प्रबन्धित करने, प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने और प्लास्टिक के जीवन चक्र के दौरान मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को इसके प्रतिकूल प्रभावों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
भारत में FAO के स्थानीय प्रतिनिधि, ताकायुकी हागीवारा ने कहा, “एफ़एओ, कृषि और उससे सम्बन्धित क्षेत्रों की गतिविधियों के पर्यावरणीय प्रभावों पर ध्यान दिए जाने की तत्काल ज़रूरत को पहचानता है.
उनका कहना है, “हम कृषि खाद्य प्रणालियों में प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए, क्षेत्र-विशिष्ट रणनीतियों और सहयोग की हिमायत करते हैं.”
उन्होंने बताया, “एफ़एओ वर्तमान में कृषि में प्लास्टिक के स्थाई उपयोग व प्रबन्धन के लिए एक स्वैच्छिक आचार संहिता विकसित कर रहा है, जो कृषि, मत्स्य पालन और पशुपालन जैसे अन्य प्रासंगिक मंत्रालयों द्वारा प्रस्तावित सन्धि लागू करने में मदद करने के लिए, कृषि खाद्य मूल्य श्रृँखला में सभी हितधारकों के लिए क्षेत्र-विशिष्ट दिशानिर्देश, उत्कृष्ट उदाहरण और संकेतक प्रदान करेगा.”
कार्रवाई की दरकार
कृषि में इस्तेमाल होने वाले उत्पादों से होने वाले प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के लिए संग्रह, पुन: उपयोग और री-सायकलिंग प्रमुख उपाय हैं. जिन प्लास्टिक वस्तुओं को प्रयोग के बाद एकत्र नहीं किया जा सकता, उन्हें पर्यावरण अनुकूल, बायोडिग्रेडेबल व सुरक्षित विकल्पों से बदला जाना चाहिए.
शालिनी भूटानी बताती हैं, “एफ़एओ 6Rs मॉडल का प्रस्ताव कर रहा है, जिससे प्लास्टिक प्रदूषण को, refuse, redesign व reduce किया जाए, reuse किया जाए, recycle किया जाए और recover किया जाए.”
वो कहती हैं, “एफ़एओ कई वर्षों से, कृषि में सर्वोत्कृष्ट प्रबन्धन उपाय अपनाने पर ज़ोर देता रहा है. जब हम ‘गुड ऐग्रिकल्चर प्रैक्टिसेज़’ की बात करते हैं या उसमें व्याप्त अन्तराल की बात करते हैं, तो ज़्यादातर यह बात होती है कि पानी का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए, भूमि का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए. लेकिन उसमें प्लास्टिक्स की बात नहीं होती.”
“तो हम यह चाहते हैं कि प्लास्टिक्स की बात भी ‘गुड ऐग्रिकल्चर प्रैक्टिस’ में जोड़ी जाए. दूसरा, ऐग्रो इकोलॉजी के तहत, कृषि के लिए बायो समाधान निकालने भी आवश्यक हैं, जिससे एक परिपत्र अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जा सके, जैसेकि प्लास्टिक मल्च फ़िल्म के बजाय कवर क्रॉप्स का उपयोग करके, प्लास्टिक का इस्तेमाल घटाया जा सकता है.”