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कन्नौज में डिंपल यादव की हार का बदला ले पाएंगे अखिलेश, BJP सुब्रत पाठक से क्यों नाराज हैं लोग? सपा और बसपा में बदलती जा रही लड़ाई

कन्नौज के सुधीर कश्यप कहते हैं कि अब क्या बात है, कौन से ऐसे समीकरण हैं कि अखिलेश यादव जैसे ताकतवर नेता को भी इस सीट पर कड़ी टक्कर झेलनी पड़ रही है। कुछ बात तो है। वो भी तब, जब बीजेपी के वर्तमान सांसद और प्रत्याशी सुब्रत पाठक ऐसे कई लोगों को अपने शब्दों से आहत कर चुके हैं, जो उनके मददगार थे। यह लड़ाई इतनी कड़ी है कि पूरा सैफई परिवार यानि मुलायम सिंह यादव परिवार कन्नौज में डेरा डाले हुए है। घर-घर जाकर वोट मांग रहा है। असल में कन्नौज की चुनावी लड़ाई इतनी भी आसान नहीं है, जितना समाजवादी पार्टी ने अंदाज लगा लिया था।

कभी समाजवादी पार्टी का गढ़ रहे, कन्नौज में अब बसपा भी अपना खेल दिखा रही है। बहुजन समाज पार्टी ने यहां पर मुस्लिम नेता इरफान बिन जफर को अपना प्रत्याशी बनाया है। इरफान बिन जफर को चुनाव लड़ने का शौक रहा है। इसके पहले वो आम आदमी पार्टी से भी चुनाव लड़ चुके हैं और सिर्फ चार हजार वोट पाए थे।

क्या कहते हैं कन्नौज के वोटर?

वो मुसलमानों के बीच कुछ ज्यादा नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन दलित वोट का एक बड़ा हिस्सा वो अपने साथ लिए जा रहे हैं, जो पिछले चुनाव में सपा के पक्ष में गया था। तब समाजवादी पार्टी से बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन था।

समाजवादी पार्टी के समर्थक शिवनाथ सिंह कहते हैं कि अखिलेश के आने के बाद समाजवादी पार्टी के पक्ष में स्थितियां अनुकूल हैं और अखिलेश भारी मतों से जीतेंगे। लेकिन उनके बगल में ही बैठे दुलारे राजपूत कहते हैं कि यहां लड़ाई कड़ी है। अब क्या होगा नहीं कह सकते।

हां, एक बात जरूर है कि सुब्रत पाठक से कुछ नाराजगी जरूर है। अब वो चुनाव तक अपने खिलाफ उभरी नाराजगी को कितना काम कर पाते हैं यह देखना होगा।

दिल्ली के बराबर था कन्नौज का महत्तव

इत्र की नगरी कन्नौज, कभी यह उत्तर भारत के कई साम्राज्यों की राजधानी रही। कन्नौज का भी वही महत्व रहा है, जो दिल्ली और पाटलिपुत्र का हुआ करता था। सम्राट हर्षवर्धन ने इसी कन्नौज अपनी बहन को गद्दी पर बिठाकर शासन किया था। हर्षवर्धन ने जिस ढंग से शासन किया वो हिंदुत्व के पर्याय माने गए।

इस नगर की सुंदरता का वर्णन इतिहास में पढ़ने को मिलता है, लेकिन अब यह इत्र की नगरी है और यहां का बना इत्र दुनिया भर में जाता है। विदेश से जो विशिष्ट मेहमान यहां आते हैं, उनको भी इत्र भेंट किया जाता है। हालांकि, इत्र की इस नगरी को विकास की जो दिशा मिलनी चाहिए थी, वो नहीं मिली।

‘इत्र पार्क’ अब बना एक चुनावी मुद्दा

लोगों की तमाम शिकायतें हैं, गिले शिकवे हैं। इत्र पार्क बनाने का वादा किया गया था, लेकिन इसके नाम पर सिर्फ दीवारे खड़ी हैं। बाकी कुछ भी नहीं बना और ये भी एक चुनावी मुद्दा है। अखिलेश यादव और उनके परिवार का इस नगरी से गहरा संबंध रहा है। 1999 में मुलायम सिंह यादव यहां से सांसद हुए थे। फिर अखिलेश यादव सांसद हुए। 2012 में जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने इस सीट पर डिंपल यादव को निर्विरोध चुनाव जितवा दिया।

2014 के लोकसभा चुनाव में डिंपल यादव एक बार फिर लगभग 20, वोटों से चुनाव जीत गई, लेकिन वही डिंपल यादव 2019 में सुब्रत पाठक से लगभग 12,000 वोटों से चुनाव हार गईं। अब 2024 के लोकसभा चुनाव में क्या होगा? क्योंकि डिंपल की हार का बदला लेने के लिए अखिलेश यादव खुद मैदान में उतर गए हैं और इस उम्मीद से उतरे की उनके लिए यह सीट बहुत आसान होगी।

बसपा के कैसे हैं समीकरण?

बहुजन समाज पार्टी के इमरान जफर ये कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह मुस्लिम मतदाता उनके साथ आ जाए और मुस्लिम-दलित गठजोड़ से वो चुनाव जीत जाएं। अब दलित तो उनके साथ है, लेकिन मुस्लिम मतदाता फिलहाल अखिलेश यादव के ही साथ है और वो BSP की ओर देखना भी नहीं चाहता।

रसूलाबाद के एक दलित मतदाता विजय कहते हैं की उनका वोट बहन जी के नाम पर हाथी पर ही जाएगा। वो दावा करते हैं कि ज्यादातर दलित हाथी के साथ हैं। क्या बसपा जीत जाएगी? इस सवाल पर वो कहते हैं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि बसपा जीतेगी या नहीं, लेकिन अपना वोट वो मायावती के नाम पर ही देंगे।

अखिलेश यादव का बड़ा नाम है और उनके नाम पर समाजवादी पार्टी को अतिरिक्त फायदा भी मिल रहा है। हर वर्ग का कुछ न कुछ वोट उनके पक्ष में जा रहा है। कन्नौज से अखिलेश यादव और उनके परिवार का पुराना संबंध रहा है, इसलिए गांव-गांव उनके कार्यकर्ता भी हैं। इसका फायदा भी उन्हें मिल रहा है। विधुना के राम आसरे कहते हैं कि नेताजी यानी अखिलेश यादव की जीत सुनिश्चित है और कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले पा रहा है।

BJP सांसद सुब्रत पाठक जीतने के बाद कभी नहीं आए

हालांकि, रमेश वर्मा कहते हैं कि यहां की लड़ाई को जितना आसान समझा जा रहा है, उतनी है नहीं। भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी सुब्रत पाठक चुनाव जीतने के बाद कन्नौज कभी आए ही नहीं और विकास कार्य भी ज्यादा दिखाई नहीं देता। लोगों से संपर्क कम रहा है। वो कुछ ऐसा बोलते रहे, जिससे विवाद बढ़ता रहा। सुब्रत पाठक से नाराजगी का असर भी चुनाव पर पड़ेगा। इसके कारण सुब्रत पाठक को चुनाव में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। फिलहाल यहां लड़ाई कठिन है।

छिबरामऊ के जगदीश तिवारी कहते हैं कि कन्नौज में लड़ाई जरूर कड़ी हो रही है, लेकिन इसके जिम्मेदार सुब्रत पाठक खुद भी हैं। भारतीय जनता पार्टी के कारण वो बहुत अच्छा चुनाव लड़ रहे हैं। इस कठिन चुनौती के पीछे उनका अपना कोई योगदान नहीं है, क्योंकि अगर प्रत्याशी का आकलन करने लगें, तो अखिलेश कहीं ज्यादा मजबूत बैठते हैं और सुब्रत पाठक ऐसा व्यवहार कर देते हैं कि लोग नाराज हो जाते हैं।

सपा और बसपा में बदलती जा रही लड़ाई

कन्नौज के ही एक स्थानीय पत्रकार कहते हैं कि कन्नौज में अखिलेश के रहने के बावजूद कोई मजबूत टक्कर नहीं होती, लेकिन सुब्रत पाठक ने पांच साल में यहां से संपर्क नहीं रखा। इसलिए लड़ाई में जरूर फंसे हुए हैं। हालांकि, उससे बड़ी दिक्कत तो यह है कि अखिलेश यादव जैसा कद्दावर नेता कड़ी लड़ाई में फंस चुका है और यही कारण है कि पूरा सैफई परिवार किसी तरह इस लड़ाई में अपनी नैया पार करना चाहता है। कभी भी सैफई परिवार ने चुनाव के लिए इतनी मेहनत नहीं की।

कन्नौज के ही देवेंद्र याद करते हैं की 2012 में समाजवादी पार्टी की डिंपल यादव निर्विरोध चुनाव जीती थीं, आज ये चुनाव फंसा हुआ है। क्यों? इसका यही कारण है वास्तव में बीजेपी बहुत मजबूत लड़ाई लड़ रही है और वो भी विपरीत स्थितियों के बावजूद। फिलहाल यहां पर लड़ाई बहुत रोचक हो रही है। बहुजन समाज पार्टी लाख दावा करें, लेकिन ये लड़ाई सीधी सपा और बसपा में बदलती जा रही है। इसीलिए भविष्यवाणी करना कठिन है।

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