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उम्मीद की फ़सल: ओडिशा में बाजरे की खेती से महिला सशक्तिकरण

उम्मीद की फ़सल: ओडिशा में बाजरे की खेती से महिला सशक्तिकरण

विभिन्न आयु वर्ग की एक दर्जन से अधिक महिलाएँ, सलीके से बाँधी, रंग-बिरंगी साड़ियों में तस्वीर खिंचवाने के लिए मुस्कुराती हुई खड़ी हैं. उन्होंने भुखमरी व अनिश्चित मौसम के ख़िलाफ़ जंग फ़तह की है.

यह महिलाएँ, भारत के पूर्वी राज्य ओडिशा के सरूडा, गंजाम से हैं. ओडिशा भारत के उन राज्यों में से एक है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील है.

बाहर हो रही मूसलाधार बारिश की ओर इशारा करते हुए, 42 वर्षीय पवित्रा कहती हैं, “हम बेहद अनिश्चित समय में जी रहे हैं. या तो बहुत बारिश होती है, या बिल्कुल नहीं, या फिर समय पर नहीं होती. मिट्टी अब उतनी उपजाऊ नहीं रही, और लम्बे समय से कीटनाशकों का उपयोग करने के कारण, हमारे शरीर को बीमारियों ने घेर लिया है.”

मानसून का आकाश मानो लगातार बदलता कैनवास बना रहा है, जिसके बीच समुदाय के लोग हरे-भरे बाजरे के खेतों में इकट्ठाहो रहे हैं. बहुत कम पानी और किसी अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता न होने का कारण, ये मज़बूत पौधे चरम मौसम में भीफलते-फूलते हैं. ये खेत, बाजरे की वापसी का संकेत देते हैं – एक प्राचीन अनाज, जो तेज़ी से सुपरफूड के रूप में उभर रहा है.

आज मानवता खाद्य सुरक्षा या भुखमरी के संकट की विशाल चुनौती का सामना कर रही है. जलवायु परिवर्तन का खाद्यउत्पादन और खाद्य प्रणालियों पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है. फ़सल उत्पादन में गिरावट और जैव विविधता के नुक़सान सेहमारे भोजन का पोषण गिर रहा है.

एक बाजरा किसान और ओडिशा की एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य, पबित्रा, अपने खेत से प्राप्त बाजरा दिखा रही हैं.

बाजरे का उदय

“बाजरा हमारे भोजन का हिस्सा हुआ करता था. मुझे याद है कि ख़ासतौर पर गर्भवती महिलाएँ व अतिरिक्त पोषण की आवश्यकता वाले लोग इसे खाते थे. लेकिन जब चावल मुख्य भोजन बन गया और सभी किसान इसे उगाने लगे, तो लोगों ने बाजरा खाना बन्द कर दिया. यह ग़रीबों के भोजन के रूप में देखा जाने लगा और केवल तब खाया जाता है जब और कोई भोजन उपलब्ध न हो.”

बाजरा कम उपजाऊ, खारे या उथली मिट्टी में भी फल-फूल सकता है, जिसमें न्यूनतम पानी की आवश्यकता होती है और इसे विकसित होने में केवल 60-90 दिन लगते हैं. इन्हें C4 अनाज के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह वायुमंडल से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने के लिए जाना जाता है. इससे यह पर्यावरण के लिए भी अनुकूल रहता है. बाजरे को सामान्य परिस्थितियों में लम्बे समय तक रखा जा सकता है, जिससे यह वर्षा पर निर्भर छोटे किसानों के लिए “अकाल के समय भण्डार” के रूप में काम करता है. वास्तव में, बाजरे को भविष्य की फ़सल कहें तो ग़लत नहीं होगा.

बाजरा, मानव द्वारा भोजन के लिए उपयोग की जाने वाली शुरुआती फ़सलों में से एक है. हाल ही में, बाजरे का उत्पादन, पहुँच व उसे भोजन प्रणाली में एकीकृत करके खेत से थाली तक पहुँचाकर, उसकी पुनर्बहाली के लिए कद़म उठाए गए हैं.

भारत दुनिया में बाजरे के सबसे बड़े उत्पादक देशों में से एक है. 2021 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव परिषद में एक प्रस्ताव पेश किया जिसके तहत 2023 को अन्तरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित करने का आग्रह किया गया.

प्रतिमा, अपने गाँव में बाजरा उगाने वाली पहली महिला थीं. उन्होंने कुछ बीजों के साथ बाजरे की खेती की शुरुआत की और अब उनकी फ़सल ख़ूब पनप रही है.

स्वास्थ्य और पोषण

राइका ब्लॉक के लामुंगिया गाँव की निवासी, प्रतिमा प्रधान कहती हैं,  “मुझे ख़राब स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में भर्ती होनापड़ा. मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती थी. मैं थका हुआ महसूस करती थी और अक्सर बीमार पड़ जाती थी. डॉक्टर ने मुझे पूरकदिए और बताया कि मुझे एनीमिया है, लेकिन इससे कोई मदद नहीं मिली. तब मुझे याद आया कि डॉक्टर ने मुझे अपने आहार में बाजरा शामिल करने का सुझाव दिया था.”

प्रतिमा ने स्थानीय बाजार में बाजरा खोजने की कोशिश की, लेकिन वो कहीं उपलब्ध नहीं था. उनका गाँव सब्ज़ियों व हल्दीउगाने के लिए जाना जाता है. समुदाय के अन्य सदस्यों की तरह, वो भी केवल इन फ़सलों के साथ धान की खेती करती थीं.

तब उन्होंने राज्य कृषि विभाग के कर्मचारियों से बाजरा के बीज लिए और यहाँ से शुरू हुई उनकी बाजरा किसान बनने की यात्रा. 2019 में, उन्होंने अपनी खपत के लिए कुछ मुट्ठी भर बीज उगाए. फ़सल अच्छी हुई. इसने अन्य किसानों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने भी बाजरा उगाना शुरू कर दिया. इसके लिए सलाह लेने वो प्रतिमा के पास जाने लगे.

सशक्तिकरण और सहनशक्ति

पोषण और स्वास्थ्य के साथ-साथ बाजरा उगाने से महिला किसानों को आर्थिक लाभ हुआ. ये महिलाएँ स्वयं सहायता समूहों(Self-Help Groups) में संगठित होकर, बाजरा आधारित उत्पादों के विकास और विपणन में सक्रिय हैं. महिलाएँ बाजरे की प्रोसेसिंग व बिक्री का संचालन करती हैं, जिसे पूरे राज्य में ‘मिलेट्स ऑन व्हील्स’ और टिफिन कैंटीन के ज़रिए बेचा जाताहै.

सुबासा मोहंता, जिन्हें 'मंडिया मां' के नाम से भी जाना जाता है, किसानों को बेहतर आजीविका और पोषण के लिए पारम्परिक बाजरा फ़सलों को अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं.

राज्य के  सिंगारपुर की सुबासा महंता, बाजरे की खेती की ओर रुख़ करने से आए परिवर्तन की जीवन्त मिसाल हैं. बाजरे कोबढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाने की वजह से गाँववाले उन्हें ‘मिलेट मदर’ के नाम से पुकारते हैं.

वो अपनी सफलता पर गर्व से कहती हैं, “बाजरा, धन और समृद्धि की देवी माँ लक्ष्मी की तरह है. मैंने 250 ग्राम बीज सेशुरुआत की थी, जिससे आठ क्विंटल फ़सल हासिल हुई. यह धान की तुलना में तीन गुना अधिक है. लोग मेरा सम्मान करतेहैं और दूर-दूराज़ के गाँवो से किसान मुझसे सलाह लेने आते हैं.”

उनका खेत पर कामकाज चल रहा है. उन्होंने अतिरिक्त आय के लिए मुर्गी पालन शुरू किया है और जैविक ख़ाद भी तैयार कररही हैं. लेकिन उनकी सबसे क़ीमती संपत्ति है, उनका ट्रैक्टर, जो घर के प्रवेश द्वार पर खड़ा है.

व्यापक प्रभाव

2017 में राज्य में बाजरा उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए, ओडिशा मिलेट मिशन (OMM) की शुरुआत की गई थी. इस मिशन के तहत, बाजरे का उत्पादन 2017 से 2022–2023 के बीच 3,333 हैक्टेयर से बढ़कर 53,230 हैक्टेयर क्षेत्र में फैल गया गया है.

ओएमएम ने घरेलू स्तर पर बाजरा की खपत बढ़ाने, विकेन्द्रीकृत प्रसंस्करण तथा अन्य बुनियादी ढाँचे की स्थापना, किसान उत्पादक संगठनों (एफ़पीओ) के ज़रिए बाजरा विपणन, और बाजरे को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस), और मध्याह्न भोजन योजना (एमडीएमएस) में शामिल करने में अहम योगदान दिया है.

विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफ़पी) और ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम), ओडिशा में खाद्य और पोषण सुरक्षा में सुधार केलिए मिलकर काम कर रहे हैं. इस साझेदारी के तहत, मिशन की उपलब्धियों का मूल्याँकन, बाजरे को खाद्य प्रणाली मेंएकीकृत करना, और इसे पोषण सुरक्षा के लिए जलवायु-सहनसक्षम अनाज के रूप में बढ़ावा देना शामिल है.

इस साझेदारी के तहत, ओडिशा में बाजरे को दोबारा भोजन का हिस्सा बनाने में मदद करने व अन्य क्षेत्रों तथा देशों में इस प्रकार की पहलों का विस्तार करने की योजना है.

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