राजस्थान के करौली ज़िले के चट्टानी इलाके में पहाड़ की चोटी पर बसा बरकी गाँव, कहने को तो डाँग यानि वन क्षेत्र है, लेकिन यहाँ चारों तरफ़ प्राकृतिक संसाधनों और वनस्पतियों का अभाव है.
गाँव में दूर-दराज़ कहीं झाडियाँ, या कहीं पेड़ों के इक्का-दुक्का झुरमुट ही नज़र आते हैं.
बरकी गाँव के लोग दशकों से पानी की कमी के कारण गर्मियों में, अपने घरों पर ताला लगाकर, पशुधन समेत अन्य इलाक़ों में पलायन करते रहे हैं.
हर साल जनवरी-फ़रवरी में वर्षा का जल कम होने के साथ ही लोग अपने पशुओं को लेकर दूसरे गाँवों में पानी की तलाश में निकल जाते थे.
वहीं महिलाएँ भी पीने के पानी के लिए रोज़ाना लम्बी दूरी तय करके सिर पर मटके रखकर दूर-दराज़ इलाक़ों से पानी लाती थीं.
अनूठी पहल ने बदले हालात
लेकिन अब गाँव ने अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए वर्षा के जल का संचय करके, पानी की समस्या दूर करने के अथक प्रयास किए हैं. स्थानीय ग़ैर सरकारी संस्थान ‘ग्राम गौरव’ ने इन प्रयासों में ग्रामीणों की मदद की और पोखरा व पारस (मिट्टी के बाँध) बनवाकर, मिट्टी एवं जल संरक्षण के तरीक़े सिखाए.
यहाँ के ग़ैर सरकारी संगठन ग्राम गौरव संस्थान ने यूनीसेफ़ के सहयोग से ग्रामीणों को पोखरा और पारस (मिट्टी के बाँध) जैसे मिट्टी एवं जल संरक्षण के तरीक़े सिखाए.
इन प्रयासों से चट्टानी पठार इलाके में भी किसान खेती करके फ़सलें उगाने लगे. इससे न केवल इस चट्टानी इलाक़े में खेती में वृद्धि हुई, बल्कि पानी की उपलब्धता भी सुनिश्चित हुई.
2023 से ही इस कार्य में यूनीसेफ़, ‘ग्राम गौरव संस्थान’ का ज्ञान भागीदार रहा है, और जो जलवायु परिवर्तन व पर्यावरणीय स्थिरता के तत्वों को मजबूत करने के लिए संस्थान के साथ मिलकर काम कर रहा है.
ग्राम गौरव संस्थान के सचिव जगदीश गुर्जर ने बताया, “हर साल जनवरी-फ़रवरी में बारिश का पानी ख़त्म हो जाता है, और लोग दूसरे गाँवों की ओर पलायन कर जाते हैं. अनेक ग्रामीण पानी लाने के लिए हर रोज़ लम्बा रास्ता तय करते थे. अब महिलाएँ और पुरुष, खदानों में काम नहीं करते.”
उन्होंने कहा, “लेकिन अब स्थिति बदल गई है. गाँवों में पानी उपलब्ध होने से लोग, ग़रीबी के कुचक्र में फँसने से बचे हैं और उनका सिलिकोसिस (साँस के साथ सिलिकायुक्त रेत अन्दर जाने से होने वाली फेफड़ों की बीमारी) से भी बचाव हुआ है. अब लोग अपने खेतों में काम करते हैं. दूध, भोजन और पानी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है.”
महिला व बाल कल्याण
इस पहल ने जल संकट का निदान करके, हर रोज़ पानी भरने के लिए लम्बी यात्रा करने को मजबूर महिलाओं को भी राहत दी है. साथ ही, बच्चों की भी बेहतर देखभाल सम्भव हो पाई है.
इस पहल के तहत, सिंचाई एवं वन संरक्षण के लिए, सौर ऊर्जा चालित टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा दिया गया. साथ ही, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग से, जलवायु परिवर्तन को सम्बोधित करने और पर्यावरणीय स्थिरता प्राप्त करने में भी योगदान मिला है.
25 वर्षीय बरकी निवासी, कृष्णा कुमारी मीना बताती हैं, “तालाब के पानी से हमें भोजन और चारा उगाने में मदद मिली. पहले लोग खनन का काम करते थे, लेकिन अब ज़्यादातर लोग गाँव में खेती करने लगे हैं.”
“पानी लाने के लिए रोज़ दूर जाने की मजबूरी के कारण, पहले बच्चों का स्कूल भी छूट जाता था. लेकिन अब वो रोज़ाना स्कूल जाते हैं. बच्चों के स्वास्थ्य में भी सुधार हुआ है, क्योंकि अब एक साझा नल में पीने व उनकी साफ़-सफाई की जरूरतें के लिए पानी उपलब्ध हैं.”
उन्होंने इसका श्रेय, ग्राम गौरव संस्थान के प्रयासों को दिया, जिससे उनकी पानी की समस्या का समाधान सम्भव हो सका. इस संस्थान ने, वर्षा के जल को तालाब में संरक्षित करने के लिए ग्रामीणों को साथ लेकर काम किया. गाँव के युवाओं ने भी इसमें पूरे जोश से भाग लिया, और पारम्परिक ज्ञान का प्रयोग करते हुए, जल प्रबन्धन का कार्य सम्भव करके दिखाया.
इन्ही प्रयासों का नतीजा है कि आज यह समुदाय आत्मनिर्भर है, और राजस्थान की अथाह गर्मी के बीच, जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनसक्षमता का उदाहरण पेश कर रहा है.
समुदाय की भागेदारी
बरकी निवासी 34 वर्षीय राकेश मीना कहते हैं कि गाँव के सभी युवाओं ने बारिश का पानी संरक्षित करने के लिए तालाब के किनारे मिट्टी के बाँध बनाने में मदद की. गाँव में युवजन के एक समूह का गठन किया गया, जो जलाशय के रखरखाव में सक्रिय रूप से भाग लेता है.
75 वर्षीय गोपाल मीना भी इन्हीं ग्रामीणों में से एक हैं, जो ग्रामीणों के लिए आजीविका पैदा करने का मार्ग प्रशस्त करते हुए, बरकी में बदलाव के कारक बन गए हैं. उनके छोटे से दो कमरे के घर के बरामदे में, घर पर उगाए सरसों के बीज और गेहूँ के बोरे रखे हुए हैं.
ग्राम गौरव संस्थान के उपदेशक मुरारी मोहन गोस्वामी कहते हैं, “जल संरक्षण सम्बन्धी कार्यक्रमों के कारण, (बरकी में) संकटग्रस्त प्रवासन में बहुत कमी आई है.”