अमेरिका और नाटो के खुफिया सूत्रों का कहना है कि रूस यूक्रेन पर नए सिरे से हमले कर सकता है। इस बीच बहस का बड़ा हिस्सा इस बात पर केंद्रित रहा है कि जर्मन चांसलर ओलाफ शुल्ज ने यूक्रेन को लेपर्ड 2 मुख्य युद्धक टैंक देने में हिचकिचाहट दिखाई है। इस बहस में यह बात शामिल है कि यूक्रेन को और अधिक उन्नत हथियारों की आपूर्ति के मामले में अटलांटिक पार के साझेदार देशों में आंतरिक मतभेद हैं क्योंकि युद्ध जैसी गतिविधियों के बढ़ने का जोखिम इससे जुड़ा हुआ है। चाहे जो भी हो यह स्पष्ट होता जा रहा है कि लंबा चलने वाला युद्ध (यूक्रेन युद्ध को 11 माह हो चुके हैं) न केवल लड़ने वालों के लिए नुकसानदेह हो सकता है बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है।
दुनिया अभी भी कोविड-19 महामारी से पूरी तरह नहीं उबर सकी है और बढ़ती ईंधन तथा खाद्य कीमतों के कारण उसे पहले ही मुद्रास्फीतिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है।ऐसा आंशिक तौर पर इसलिए हुआ कि यूरोप ने रूस पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पश्चिम एशिया से आपूर्ति लेना शुरू कर दिया। फिलहाल जो हालात हैं उनके मुताबिक न तो रूस पीछे हटने को तैयार है, न ही यूक्रेन और अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो की ओर से ऐसा कोई संकेत मिल रहा है कि वे अपनी स्थिति से पीछे हटने को तैयार हैं। ऐसे में भारत के पास अवसर है कि वह इस वर्ष हासिल जी20 समूह की अध्यक्षता का सदुपयोग करे और शांति की दिशा में पहल का नेतृत्व करे।
भारत फिलहाल ऐसी पहल का नेतृत्व करने की दृष्टि से मजबूत स्थिति में है और इसकी कई वजह हैं। पहली, भारत यूक्रेन में रूसी आक्रमण के मामले में एक नाजुक संतुलन वाली स्थिति कायम करने में कामयाब रहा है और संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ होने वाले हर मतदान से उसने दूरी बनाए रखी। इसके साथ ही उसने लगातार दबाव बनाने वाली कूटनयिक भाषा में यह कहना जारी रखा कि दोनों देशों को संवाद अपनाना चाहिए।
पश्चिम के जानकारों ने भारत की इस निरंतर अनुपस्थिति को अपने हित में अवसर के रूप में इस्तेमाल किया है क्योंकि रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है और वह सस्ता कच्चा तेल मुहैया कराने का माध्यम भी है। यह बात आंशिक रूप से ही सही है। यह भी सही है कि युद्ध के मामले में निरपेक्ष रहने का रुख नए साझेदार अमेरिका के साथ भी मददगार नहीं रहा है और उसने भारत के असंतोष के बावजूद पाकिस्तान के साथ एफ-16 लड़ाकू विमान के बेड़े का कार्यक्रम जारी रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गत वर्ष के अंत में शांघाई सहयोग संगठन से इतर एक मुलाकात में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के साथ बातचीत में निरंतर युद्ध के खतरों का जिक्र करके अहम काम किया।
दूसरा, रूस-यूक्रेन युद्ध में अपने रुख के साथ भारत अकेला नहीं है। चीन के अलावा दक्षिण अमेरिका से अफ्रीका तक कई देशों ने अमेरिका और यूरोप के रुख से असहजता दिखाई है और वे लंबी लड़ाई की संभावनाओं से भी नाखुश हैं। ऐसे कई देश रूसी आक्रमण की आलोचना करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से अनुपस्थित रहे। उदाहरण के लिए अक्टूबर 2022 में एक प्रस्ताव में मांग की गई कि रूस ने यूक्रेन के जिन चार क्षेत्रों का अवैध अधिग्रहण किया है उन्हें वापस करे। इस प्रस्ताव पर मतदान से 35 देश अनुपस्थित रहे जिनमें भारत और चीन के अलावा अधिकांश अफ्रीकी देश थे।
वर्तमान स्थिति और भारत के हित उसे यह अवसर देते हैं कि बतौर जी20 अध्यक्ष तथा एक बड़े विकासशील देश के रूप में वह दुनिया के विकासशील देशों को समस्या का हल तलाशने की दिशा में प्रेरित करे। शांति की एक स्वतंत्र पहल न केवल इस शिखर बैठक के लिए भारत की ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की थीम को विश्वसनीय बनाएगी बल्कि वह हाल के समय चमक खो चुकी जी20 परियोजना को अधिक उपयोगी बनाएगी और दुनिया के सामने मौजूद आर्थिक संकट को टालने की दिशा में कम से कम एक कदम बढ़ाएगी।
