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Lok Sabha Elections 2024: यादव अखिलेश के साथ, तो कुर्मी किसके साथ? पिछड़ों में इन दो जातियों के हैं सबसे ज्यादा वोटर, कर सकते हैं खेल

Lok Sabha Elections 2024: संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी मतदाता पिछड़ों में सबसे ज्यादा हैं। यादव कुल जनसंख्या का लगभग सात प्रतिशत हैं, तो लगभग चार से पांच प्रतिशत कुर्मी हैं। लेकिन यह विडंबना ही है कि दोनों सशक्त पिछड़ी जातियों का राजनीतिक मार्ग और रुझान एक जैसा कभी नहीं रहा। दोनों अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग दिशाओं में ही चले हैं। लेकिन पिछड़े वर्ग के सबसे सशक्त माने जाने वाले यादव मतदाता का रुख ज्यादातर गैर-कांग्रेस वाद की तरफ रहा। अपने सजातीय नेता सबसे ज्यादा आकर्षित करते रहे, लेकिन जब चौधरी चरण सिंह किसान नेता के रूप में उभरे, तो यह मतदाता उनके साथ चला गया। लेकिन राजनीति में जब मुलायम सिंह यादव का उदय हुआ, तो इसके बाद से यादव मतदाता या तो उनके साथ रहा या उनके परिवार के साथ।

उधर कुर्मी मतदाताओं की राह अलग ही रही। उन्होंने सामूहिक आधार पर किसी एक पार्टी को वोट दिया हो ऐसा नहीं कह सकते। हां, क्षेत्रीय आधार पर उनके नेता उभरे और कुर्मी मतदाता उनके साथ मजबूती से खड़ा भी रहा। अब अनुप्रिया पटेल, जो अपना दल सोनेलाल पटेल की पार्टी की नेता हैं और केंद्र में मंत्री भी हैं, उनका प्रभाव कुर्मी मतदाताओं में है, लेकिन उनकी बहन पल्लवी पटेल, जो अपना दल कमेरा की नेता हैं और उनकी मां कृष्णा पटेल कुर्मी मतदाताओं का समर्थन अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहे हैं।

अब 2024 के लोकसभा चुनाव में यादव और कुर्मी मतदाता किसके साथ रहेंगे। अब तक जो रूख दिख रहा है, उससे तो यही लगता है की फिलहाल यह अखिलेश के साथ है। जहां तक यादव मतदाताओं के समर्थन का सवाल है, तो यह समाजवादी पार्टी का सबसे मजबूत स्तंभ रहा है और इसके साथ रहने से मुस्लिम मतदाता भी सपा के साथ ही जाता रहा।

सरोजिनी नगर के हीरा लाल यादव कॉलेज के सामने खड़े देवेंद्र यादव कहते हैं कि अब छुटपुट वोटों की बात तो नहीं करते, लेकिन ज्यादातर यादव मतदाता अखिलेश यादव के साथ ही हैं। क्यों? इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि अखिलेश यादव पिछड़ों का भला कर रहे हैं। मुलायम सिंह जी ने पिछड़ों और दलितों के लिए बहुत काम किया और अब वही काम अखिलेश यादव आगे बढ़ा रहे हैं।

कानपुर के सरतौल कस्बे के रामपाल सचान कहते हैं कि कुर्मी मतदाता हमेशा सजग रहा है और किसी एक के पीछे नहीं भागा। क्या होगा इस लोकसभा चुनाव में? ये पूछे जाने पर वह कुछ सोच में पड़ जाते हैं, फिर कहते हैं कि इस बार मोदी को भी अच्छी संख्या में वोट मिलेगा। कुछ वोट अन्य दलों को भी मिल सकता है।

मोदी को क्यों? सचान कहते हैं कि मोदी पिछड़ों के लिए बेहतर काम कर रहे हैं, इसलिए लोग उनसे भी खुश हैं और उन्हें वोट भी देना चाहते हैं। क्या समाजवादी पार्टी गठबंधन को भी कुर्मी वोट जाएगा? रामपाल सचान इससे इनकार नहीं करते और बताते हैं कि जहां पर सपा का कुर्मी प्रत्याशी होगा, वहां उसके पक्ष में भी जा सकता है।

मुलयाम सिंह ने कैसे छीना कांग्रेस से यादव वोट?

1985 में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद के मजबूत दावेदार के रूप में उभर रहे थे और यहीं से यादव मतदाता उनके साथ खड़ा हुआ। यादव बेल्ट में यानि- इटावा, मैनपुरी, एटा, फिरोजाबाद, कानपुर देहात, फतेहपुर और कन्नौज में कांग्रेस के यादव नेता थे बलराम सिंह यादव। वह कांग्रेस पार्टी के सांसद भी थे और केंद्र सरकार में मंत्री भी, लेकिन मुलायम सिंह यादव के उभरने के बाद इस पट्टी में जबरदस्त यादवी संघर्ष देखने को मिला।

कई बार हिंसा हुई, गोलियां चलीं। मुलायम सिंह यादव धीरे-धीरे कांग्रेस को समेटते जा रहे थे और इससे बलराम सिंह यादव कमजोर होते जा रहे थे। वह दौर भी आया जब बलराम सिंह यादव पूरी तरह से उखड़ चुके थे और मुलायम सिंह ने यादव वोटों पर अपना कब्जा जमा लिया। इसका असर पूरे प्रदेश में पड़ा।

यादव मतदाताओं में मुलायम सिंह की पकड़ का असर, इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बलराम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी में शामिल होना पड़ा और उसके बाद यादव मतदाताओं के बीच मुलायम सिंह को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा। पिछड़े वर्ग में सबसे मजबूत और संख्या की दृष्टि से भी ज्यादा यादव मतदाताओं के साथ आने के बाद मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति में और भी मजबूत हो गए और मुस्लिम मतदाता उनके साथ खड़ा हो गया।

क्योंकि बीजेपी के विकल्प के रूप में वही एकमात्र नेता थे। यादव मतदाताओं के समर्थन ने मुलायम को राज्य की राजनीति में मजबूत बनाए रखा और केंद्र में भी उनकी पकड़ मजबूत होती चली गई।

एक दौर ऐसा भी आया, जब मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो गए। हालत यह हो गई कि बिहार के यादवों के सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद यादव को मुलायम सिंह की दावेदारी का विरोध करना पड़ा। मुलायम सिंह यादव के बाद यादव मतदाता, अब अखिलेश यादव के साथ है, लेकिन वह कौशल अखिलेश में नहीं दिखता, जो मुलायम सिंह में था।

घर के अंदर ही जोर आजमाइश

जहां तक कुर्मी मतदाताओं के समर्थन की बात है, तो ये मतदाता कभी एकजुट होकर किसी के पक्ष में नहीं गया। यह विडंबना ही है कि पिछड़े वर्ग में संख्या और ताकत के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा मतदाता कुर्मी जाति का कोई मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश में नहीं बना। क्षेत्रीय क्षत्रप जरूर उभरते रहे, लेकिन मुख्यमंत्री पद तक कोई नही पहुंच सका।

समाजवादी पार्टी और बाद में कांग्रेस में गए नेता बेनी प्रसाद वर्मा तीन-चार जिलों के कुर्मियों के नेता बने, लेकिन इसके बाद उनका असर कमजोर पड़ा। बहुजन समाज पार्टी में सोनेलाल पटेल का उदय हुआ, लेकिन जब मायावती ने उन्हें पार्टी से हटा दिया, तो उन्होंने अपना दल नाम की पार्टी बनाई।

सोनेलाल पटेल ने राज्य भर के कुर्मी मतदाताओं को जोड़ना शुरु किया। इसके परिणाम कुछ सामने आए, लेकिन उन्हें वह मजबूती नहीं मिली, जो मुलायम सिंह के पक्ष में यादव मतदाताओं की थी। सोनेलाल पटेल की मृत्यु के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने पार्टी का नेतृत्व संभाला और कुर्मी मतदाताओं के बीच वह काफी लोकप्रिय हैं।

2014 में सोनेलाल पटेल के परिवार में अनबन हुई और सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल और उनकी दूसरी बेटी पल्लवी पटेल ने अपनी अलग पार्टी ‘अपना दल कमेरा’ बना लिया। अब कुर्मी मतदाताओं को लेकर घर के अंदर ही जोर आजमाइश है। फिलहाल कुर्मी मतदाता मोदी के साथ दिखता है, लेकिन जहां पर दूसरे दलों का कुर्मी प्रत्याशी होगा, वहां की तस्वीर चुनाव नतीजों के बाद ही साफ हो पाएगी।

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