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‘ग़ाज़ा युद्ध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी गम्भीर ख़तरे में’

‘ग़ाज़ा युद्ध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी गम्भीर ख़तरे में’

संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ इरीन ख़ान ने शुक्रवार को न्यूयॉर्क में पत्रकारों से बातचीत में चेतावनी भरे शब्दों में यह जानकारी दी है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण और इसे प्रोत्साहन देने के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष रैपोर्टेयर इरीन ख़ान ने कहा है, “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर देशों और निजी पक्षों द्वारा ग़ैरक़ानूनी, भेदभावपूर्ण और असंगत प्रतिबन्ध के इतने व्यापक चलन हमने शायद ही कभी देखे हों – और यही बात मुझे परेशान करती है.”

इरीन ख़ान ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में पत्रकारों को अपनी नवीनतम रिपोर्ट के बारे में भी जानकारी दी, जो उन्होंने गुरूवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुत की है.

इस रिपोर्ट में, ग़ाज़ा में युद्ध के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के गम्भीर उल्लंघनों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है, जिसमें ग़ाज़ा में पत्रकारों की हत्या, दुनिया भर में विरोध प्रदर्शनों को कुचलना और कलाकारों और विद्वानों को चुप कराना शामिल है.

मीडिया पर पाबन्दियाँ

इरीन ख़ान ने ग़ाज़ा के साथ-साथ पश्चिमी तट और पूर्वी येरूशेलम में भी मीडिया पर किए जा रहे गम्भीर हमलों की ओर ध्यान आकर्षित किया.

उन्होंने पत्रकारों की लक्षित हत्या और मनमाने ढंग से हिरासत में लिए जाने, ग़ाज़ा में प्रैस सुविधाओं और उपकरणों के व्यापक विनाश, लोगों को अन्तरराष्ट्रीय मीडिया तक पहुँच से वंचित करने, अल जज़ीरा समाचार चैनल पर प्रतिबन्ध लगाने और इसराइल तथा उसके क़ब्जे वाले फ़लस्तीनी क्षेत्र में प्रतिबन्धों को और अधिक सख़्त बनाए जाने की ओर इशारा किया.

उन्होंने कहा कि ये कार्रवाइयाँ “इसराइली अधिकारियों की आलोचनात्मक पत्रकारिता को ख़ामोश कराने और सम्भावित अन्तरराष्ट्रीय अपराधों के रिकॉर्ड तैयार किए जाने में बाधा डालने की रणनीति का संकेत देती हैं.”

उन्होंने कहा कि वैसे तो किसी पत्रकार की जानबूझकर हत्या करना एक युद्ध अपराध है, लेकिन पिछले साल या उससे पहले के वर्षों में भी, इसराइल के क़ब्जे वाले फ़लस्तीनी क्षेत्र में किसी भी पत्रकार की हत्या की कभी भी उचित जाँच नहीं हुई है, ना ही किसी पर मुक़दमा चलाया गया या किसी को सज़ा हुई है.”

उन्होंने कहा, “पूरी तरह से दंड से मुक्ति का माहौल है.”

अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालय परिसरों में, फ़लस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन हुए थे जिन पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए.

विरोध प्रदर्शनों और फ़लस्तीनी प्रतीकों पर प्रतिबन्ध

उनकी रिपोर्ट में भेदभाव और दोहरे मानदंडों पर भी प्रकाश डाला गया है, जो फ़लस्तीनी अधिकारों के समर्थन में प्रकट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबन्धित करते हैं, और ग़ाज़ा में जनसंहार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों को दबाते हैं.

इरीन ख़ान ने कहा कि अनेक योरोपीय देशों में फ़लस्तीनी समर्थक प्रदर्शनों पर प्रतिबन्ध लगाए गए हैं, जिनमें कुछ पूर्ण प्रतिबन्ध भी शामिल हैं, और साल 2024 की शुरुआत में संयुक्त राज्य अमेरिका में आयोजित विश्वविद्यालय के परिसरों में हुए विरोध प्रदर्शनों को कठोरता से कुचल दिया गया.

झंडों या कैफ़ियेह जैसे फ़लस्तीनी राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ-साथ कुछ नारों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किए जाने पर भी प्रतिबन्ध हैं और कुछ देशों में इनके प्रदर्शन को अपराध भी माना गया है.

उन्होंने बताया कि इस तरह के पूर्ण भेदभावपूर्ण प्रतिबन्ध, स्वाभाविक रूप से अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के साथ मेल नहीं खाते हैं क्योंकि वे आवश्यकता, आनुपातिकता और ग़ैर-भेदभाव के सिद्धान्त की कसौटी पर खरे नहीं उतरते.

इरीन ख़ान ने कहा, “अन्तरराष्ट्रीय मानकों का सम्मान किए जाने में यह विफलता, वैश्विक चिन्ता का विषय है क्योंकि यह स्थिति दुनिया भर में यह सन्देश देती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इच्छानुसार या राजनैतिक लाभ के लिए दबाया जा सकता है.”

कलाकारों और शिक्षाविदों की आवाज़ों का दमन

इरीन ख़ान रिपोर्ट में बताया गया है कि युद्ध जारी रखने जाने के साथ-साथ शिक्षा जगत और कला में असहमति जताने वाली आवाज़ों को चुप करा दिया गया और दरकिनार कर दिया गया.

उन्होंने कहा कि “दुनिया के कुछ बेहतरीन शैक्षणिक संस्थान, अपने शैक्षणिक समुदायों के सभी सदस्यों को समान सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहे हैं, और उनमें यहूदी, फ़लस्तीनी, इसराइली, अरब, मुस्लिम या अन्य देश शामिल हैं.”

इसके परिणामस्वरूप, बौद्धिक आदान-प्रदान कम हो गया है और पश्चिम के बहुत से संस्थानों में कलात्मक स्वतंत्रता को प्रतिबन्धित किया जा रहा है.

उन्होंने कहा, “मुझे विद्वानों से शिकायतें मिलीं जिनमें बताया गया है कि फ़लस्तीनी स्थिति या इसराइली नीतियों से सम्बन्धित उनके अकादमिक शोध या उनके राजनैतिक नीतिगत अध्ययनों पर, नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.”

इस बीच, कलाकारों और लेखकों को धमकाया गया, अलग-थलग किया गया या कार्यक्रमों से बाहर रखा गया क्योंकि उन्होंने ग़ाज़ा युद्ध पर अपने विचार व्यक्त किए या इसराइल की आलोचना की – या फिर इसराइल की आलोचना नहीं की.

सोशल मीडिया में नज़र आते मतभेद

रिपोर्ट में सोशल मीडिया मंचों की भी जाँच की गई है, जो ग़ाज़ा से और ग़ाज़ा के लिए संचार व सम्पर्क की जीवन रेखा रहे हैं, लेकिन ये मंच साथ ही ग़लत सूचना, भ्रामक सूचना और घृणास्पद भाषा के “प्रमुख वाहक” भी रहे हैं.

उन्होंने कहा कि वैसे तो अरब, यहूदी इसराइली और फ़लस्तीनी सभी लोगों को ऑनलाइन मंचों पर निशाना बनाया जाता है, मगर “जहाँ तक मैं देख सकती हूँ, अधिकांश कम्पनियों ने अपने जवाबों में पक्षपात दिखाया है… वो इसराइल के बारे में अधिक उदार और फ़लस्तीनी अभिव्यक्ति के बारे में अधिक प्रतिबन्धात्मक रही हैं.”

घृणा भरी भाषा बनाम संरक्षित भाषा

इरीन ख़ान ने इस मुद्दे पर भी अपना रुख़ पेश किया कि इसराइल और यहूदी कट्टरवाद की आलोचना को किस तरह यहूदी-विरोधी भावना के साथ जोड़ने के लिए अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनी मानकों को विकृत किया गया और उनकी ग़लत तरीक़े से व्याख्या की जा रही है, जो ऑनलाइन और ऑफ़लाइन दोनों ही परिस्थितियों में हो रहा है.

इरीन ख़ान ने स्वीकार किया कि यह एक विवादास्पद मुद्दा था “लेकिन मैं इस मुद्दे पर अपनी बात पर क़ायम हूँ”.

उन्होंने समझाया कि यहूदी-विरोधी भावना (antisemitism) नस्लीय भेदभाव है, अर्थात यह यहूदियों के ख़िलाफ़ नस्लीय और धार्मिक घृणा का सबसे बुरा रूप है और इसकी स्पष्ट रूप से निन्दा की जानी चाहिए.

उन्होंने कहा, “लेकिन राजनैतिक आलोचना जैसी संरक्षित भाषा का, नफ़रत भरी भाषा जैसी निषिद्ध भाषा के साथ घालमेल करना, यहूदी-विरोधी भावना के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करता है, और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को भी कम करता है.”

विशेष रैपोर्टेयर

इरीन ख़ान जैसे विशेष रैपोर्टेयर, जिनीवा स्थित मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं, जो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रणाली में स्वतंत्र विशेषज्ञों का सबसे बड़ा निकाय है.

यह परिषद, उनकी नियुक्ति, विशिष्ट देश की स्थितियों या विषयगत मुद्दों पर निगरानी रखने और अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए नियुक्त करती है.

ये विशेषज्ञ स्वैच्छिक आधार पर काम करते हैं; वे संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं हैं और उन्हें अपने काम के लिए संयुक्त राष्ट्र से कोई वेतन भी नहीं मिलता है. वे किसी भी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और अपनी व्यक्तिगत क्षमता में सेवा करते हैं.

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