मंगलवार को प्रकाशित ‘Women in Parliament’ नामक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं का वैश्विक अनुपात, पिछले साल हुए चुनावों और नियुक्तियों के बाद 26.9 प्रतिशत तक पहुँच गया.
यह वृद्धि, 2022 में दर्ज की गई बढ़ोत्तरी के ही समान है, मगर उससे पहले के दो वर्षों की तुलना में धीमी है. 2021 और 2020 में 0.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी.
संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के विषय में रवांडा की एक बार फिर अग्रणी भूमिका है, जहाँ ‘चैम्बर ऑफ़ डेप्युटीज़’ में महिलाओं की हिस्सेदारी 61.3 प्रतिशत है.
इसके बाद क्यूबा (55.7 प्रतिशत) और निकारागुआ (53.9 प्रतिशत) का स्थान है.
क्षेत्रवार दृष्टि से, अमेरिकी क्षेत्र ने उच्चतम महिला प्रतिनिधित्व की अपनी स्थिति को बरक़रार रखा है, जहाँ संसदों में महिलाओं की हिस्सेदारी 35.1 प्रतिशत है.
अन्तर संसदीय संघ (आईपीयू), एक अन्तरराष्ट्रीय संगठन है, मगर संयुक्त राष्ट्र से भिन्न है. दोनों संगठन, साझा लक्ष्यों और सशक्तिकरण, समावेशी निर्णय-निर्धारण से जुड़े उद्देश्यों के लिए और देशों के बीच सम्वाद व सहयोग को बढ़ावा देने के लिए काम करते हैं.
आईपीयू को संयुक्त राष्ट्र में एक विशेष दर्जा प्राप्त है, जहाँ संगठन को यूएन महासभा के कामकाज में और सत्रों में एक पर्यवेक्षक के रूप में हिस्सा लेने का स्थाई निमंत्रण प्राप्त है.
राजनीति छोड़ रही महिलाएँ
आईपीयू की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष कई बड़ी महिला राजनैतिक नेताओं ने राजनीति को अलविदा कह दिया, जिसकी मुख्य वजह कथित रूप से ऑनलाइन माध्यमों पर होने वाला उत्पीड़न और काम के बोझ से होने वाली अत्यधिक थकान व स्वास्थ्य प्रभाव है.
वर्ष 2023 के आरम्भ में, जेसिन्डा आर्डेन ने न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री के पद से हटने और फिर अपनी संसदीय सीट से चुनाव ना लड़ने की घोषणा की.
इसके कुछ ही महीने बाद, फ़िनलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री सना मरीन को अप्रैल में हुए चुनावों में हार झेलनी पड़ी, जिसके बाद उन्होंने अपनी संसदीय सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और राजनीति छोड़ने का निर्णय लिया.
नैदरलैंड्स में भी अनेक महिला नेताओं ने अपने पद छोड़ दिया.
रिपोर्ट उन उपायों को भी रेखांकित करती है, जिनके ज़रिये कुछ संसदों ने सुरक्षा में बेहतरी लाने के लिए क़दम उठाए हैं.
उदाहरणस्वरूप, आइसलैंड की राष्ट्रीय संसद में एक रणनीति व कार्रवाई योजना को पारित किया गया है, जिसका उद्देश्य डराए-धमकाए जाने और यौन व लिंग-आधारित उत्पीड़न से निपटना है.
चुनावों में लैंगिक मुद्दे
आईपीयू रिपोर्ट में उन लैंगिक मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया, जोकि पिछले वर्ष चुनावों के दौरान मतदाताओं की प्राथमिकता सूची में नज़र आए.
इनमें ऐसे देशों में महिलाओं के प्रजनन अधिकार भी हैं, जहाँ गर्भपात के मुद्दे पर परस्पर विरोधी मत हैं.
पोलैंड में हुए चुनावों में यह मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा, जहाँ 2020 में कोर्ट के आदेश के बाद गर्भपात कराए जाने की सम्भावना को नीतियों व क़ानूनों के ज़रिये सीमित कर दिया गया था, और तत्कालीन सरकार ने इसका समर्थन किया था.
इस निर्णय के बाद देश भर में व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन हुए हैं, जिनका नेतृत्व महिलाओं और युवाओं ने किया. रिपोर्ट के अनुसार यह एक अहम मुद्दा साबित हुआ जिसकी वजह से देश में सत्ताधारी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
वहीं, अर्जेन्टीना में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हाविएर मिलेई ने गर्भपात पर 2020 में लागू किए गए प्रगतिशील क़ानून को वापिस लेने के लिए जनमत संग्रह कराने का वादा किया. उनकी चुनावों में जीत हुई और यह माना गया कि पुरुष मतदाताओं ने उन्हें भारी संख्या में वोट दिए थे.