मोहम्मद अलनवैरन एक हरे-भरे नींबू के पेड़ के सामने खड़े हैं, जिससे चार महीने बाद नींबू की पहली उपज हासिल होने वाली है.
एक व्यवसायी से किसान बने अलनवैरन, पिछले 15 वर्षों से सऊदी अरब के पूर्वी रेगिस्तानी क्षेत्र अल-अहसा में खेती कर रहे हैं. अब, जलवायु परिवर्तन और घटती जल आपूर्ति के कारण, वो नई तकनीकें व नई फ़सलें अपना रहे हैं.
उन्होंने यूएन न्यूज को बताया, “हम इस क्षेत्र में अपने नींबू की खेती पर बहुत गर्व महसूस करते हैं. जब आप इन्हें छूते हैं, तो हाथों पर उनके खट्टे तेल की ख़ुशबू महसूस कर सकते हैं. इससे हमारे बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं, और अब तो मुझे इन्हें व्यावसायिक रूप से उगाने का अवसर मिल रहा है.”
मोहम्मद अलनवैरन, होफुफ़ शहर के समीप एक मरूद्यान (oasis) में स्थित अपने छोटे से खेत को निहारते हैं. लगभग एक हज़ार वर्ग मीटर वाले इस खेत की रेतीली मिट्टी में दो मीटर लम्बे, लगभग 120 पेड़ लगे हुए हैं, जो पिछले चार साल से बढ़ रहे हैं.
कुशल सिंचाई तकनीक
मोहम्मद अलनवैरन बताते हैं, “मेरे बाईं ओर वो पेड़ हैं जिन्हें नई तकनीकों से सिंचित किया गया है, और दाईं ओर वो पेड़ हैं जिन्हें मैंने पारम्परिक तरीक़े से अपने हाथ से पानी दिया है. नई तकनीकों से सींचे गए पेड़ अधिक बेहतर तरीक़े से पनप रहे हैं.”
उनके रंग, आकार और मज़बूती में अन्तर साफ़ नजर आता है, और इन पेड़ों के अच्छे स्वास्थ्य का कारण मुख्यत: सिंचाई का तरीक़ा ही है.
मोहम्मद अलनवैरन के खेत में, कुशल सिंचाई तकनीक का परीक्षण किया जा रहा है. यह फ़सल उगाने का एक संसाधन-कुशल उपाय है, जिसे संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) द्वारा, इस क्षेत्र में प्रोत्साहन दिया जा रहा है.
इसके लिए वो अपने स्मार्टफोन पर एक ऐप के ज़रिए, मिट्टी की गुणवत्ता की जाँच करते हैं और अपने नींबू के पेड़ों के लिए आवश्यक पानी की ज़रूरत को समझते व आवश्यकतानुसार उसकी आपूर्ति करते हैं.
जब बारिश होती है, तो सेंसर नम परिस्थितियों को दर्ज़ कर लेते हैं और निर्धारित जल आपूर्ति रोक देते हैं. अगर पेड़ों को पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा होता है, तो ऐप ज़रूरत पड़ने पर अधिक पानी की आपूर्ति का निर्देश दे सकता है – और यह सब कुछ बिना वहाँ जाए, दूर से ही किया जा सकता है.
जल संकट
पहले मरूद्यान की कृषि भूमि में प्रचुर मात्रा में पानी था, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में कमी और पानी की अत्यधिक खपत वाली चावल की खेती के कारण जल स्तर नीचे गिरता गया. इससे पानी की उपलब्धता अधिक चुनौतीपूर्ण और महँगी हो गई है.
नज़दीक के एक अन्य भूखंड पर चावल की खेती करने वाले मोहम्मद अलनवैरन को तब काम बन्द करना पड़ा, जब उनके कुएँ का पानी 300 मीटर नीचे चला गया.
FAO के सिंचाई विशेषज्ञ, महमूद अब्देलनबी ने बताया, “कुशल सिंचाई से जल की ख़पत 70 प्रतिशत तक कम की जा सकती है और यह पर्यावरण के लिए अधिक टिकाऊ है.”
आमतौर पर सऊदी अरब जैसे देश में भीषण गर्मी के मौसम में खेतों में पानी देने के काम में बहुत समय व मेहनत लगती है. फिलहाल किसानों को जल आपूर्ति के लिए भुगतान नहीं करना पड़ता, और स्वचालन (ऑटोमेशन) की वजह से, पेड़ों को पानी देने के लिए कम मज़दूरों की ज़रूरत होती है, जिससे अच्छी बचत हो जाती है.
हालाँकि यह एक उन्नत तकनीक है, लेकिन स्थानीय बाज़ार में आसानी से उपलब्ध है. इसके लिए कुछ वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन FAO के महमूद अब्देलनबी के अनुसार, “इससे उत्पादन में वृद्धि होती है और मज़दूरी की लागत कम हो जाती है, जिससे अतिरिक्त लाभ मिलता है.”
भूमि क्षरण
सऊदी अरब के रेगिस्तानी इलाक़ों में जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं, जिससे किसानों को न केवल जल संकट, बल्कि मरुस्थलीकरण व उर्वर भूमि की हानि का सामना करना पड़ रहा है.
FAO के साझीदार, सऊदी सिंचाई संगठन के ज़ाफ़र अलमुबारक़ ने बताया कि, “कुशल सिंचाई, जलवायु परिवर्तन के प्रति एक समग्र प्रतिक्रिया का हिस्सा है, जिसमें मिट्टी प्रबन्धन एवं फ़सल चयन भी शामिल है.”
उन्होंने कहा, “ये दृष्टिकोण अपनाकर ना केवल जल का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सकता है, बल्कि भूमि पुनर्वास एवं मरुस्थलीकरण से निपटने में भी मदद मिलती है.”
दुनियाभर में लगभग 40 प्रतिशत भूमि का क्षरण हो चुका है, जिससे जलवायु, जैव विविधता एवं लोगों की आजीविकाओं पर गम्भीर प्रभाव पड़ रहा है.
दुनिया के अन्य किसानों की तरह, मोहम्मद अलनवैरन भी अपने लम्बे अनुभव और विशेषज्ञता का उपयोग, अपनी फ़सल की उपज बढ़ाने के लिए कर रहे हैं. यह ज़रूरत और अवसर दोनों से प्रेरित है.
उन्होंने कहा, “मैं अपनी पूरी खेती के लिए कुशल सिंचाई का तरीक़ा अपनाने पर विचार कर रहा हूँ और मुख्य रूप से नींबू की खेती पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ, जिसके लिए मेरे पास बाज़ार तैयार है.”
अगर अन्य किसान भी उनकी राह पर चलते हैं, तो इन शुष्क क्षेत्रों में जल आपूर्ति का अधिक कुशल उपयोग सम्भव हो सकेगा, और खेती के ज़रिए मरुस्थलीकरण की रोकथाम में मदद मिलेगी.