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भारत: सतत भविष्य के लिए आदिवासी समुदायों की मज़बूती

भारत: सतत भविष्य के लिए आदिवासी समुदायों की मज़बूती

भारत के छत्तीसगढ़ प्रदेश के मसुलपानी गाँव की गोंड जनजाति की सदस्य, फुलवासन कुदुपी, हर दिन अपने समुदाय के साथ जंगल जाती हैं. 

फुलवासन कुदुपी, वहाँ से औषधीय गुण वाले महुआ, हर्रा, बेहड़ा और तेंदू पत्ते जैसी महत्वपूर्ण वन उपज एकत्रित करती हैं और उन्हें बाज़ार में बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करती हैं. 

कुदुपी कहती हैं, “हम अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह जंगल पर निर्भर हैं. इसे बचाने के लिए हम कुछ भी करेंगे.”

उनकी कहानी भारत और दुनिया भर के करोड़ों आदिवासी समुदायों की कहानी है, जो अपनी जीविका के लिए “सामूहिक संसाधनों” पर निर्भर हैं. 

“सामूहिक संसाधन” जंगल, चारागाह और जलस्रोत जैसी वो प्राकृतिक सम्पदाएँ हैं, जिनका उपयोग एवं प्रबन्धन, समुदाय के सभी सदस्य, सामूहिक रूप से करते है..

भारत में, ख़ासतौर पर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लगभग 35 करोड़ लोग, इन सामूहिक संसाधनों पर निर्भर हैं. लेकिन, इन संसाधनों तक उनकी पहुँच और अधिकार आज भी असुरक्षित हैं.

आदिवासी समुदायों की लगभग आधी आमदनी, जंगलों पर निर्भर होती है.

सामूहिक संसाधनों का महत्व

विश्व स्तर पर क़रीब ढाई अरब लोग, समुदायों द्वारा शासित भूमि पर निर्भर हैं. न्यायसंगत उपयोग एवं सततता सुनिश्चित करने के लिए अक्सर सामूहिक नियम बनाकर इन सामूहिक संसाधनों का प्रबन्धन किया जाता हैं.

इन संसाधनों के नष्ट होने से जैव विविधता की हानि, भूमि क्षरण, और जल संकट जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं, जिनका सबसे बड़ा प्रभाव संवेदनशील समुदायों पर पड़ता है. 

आदिवासी आबादी, जिनकी वार्षिक आय का लगभग आधा हिस्सा जंगलों से आता है, इस स्थिति से विशेष रूप से प्रभावित होती है. 

इन चुनौतियों से निपटने के लिए भूमि अधिकारों को सुरक्षित करना और विकेन्द्रीकृत शासन को बढ़ावा देना आवश्यक है, ताकि आजीविका एवं पर्यावरण दोनों की रक्षा की जा सके.

नोबेल पुरस्कार विजेता डॉक्टर ऐलीनॉर ओस्ट्रॉम के सामूहिक संसाधन प्रबन्धन पर किए गए शोध ने सामूहिक संसाधनों के सतत प्रबन्धन का मार्ग प्रशस्त किया है. 

उनके सिद्धान्त, भारत के ग्रामीण और आदिवासी समुदायों से गहराई से मेल खाते हैं, जिनका भविष्य इन साझा संसाधनों के संरक्षण पर निर्भर करता है.

सुरक्षित भूमि अधिकार के ज़रिए, महिलाओं को इन संसाधनों के उपयोग के लिए क़ानूनी मान्यता प्राप्त होती है.

सामूहिक संसाधन: जलवायु सहनशक्षमता व लैंगिक समानता की कुंजी

जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल (IPCC) में जलवायु परिवर्तन से निपटने में सामूहिक संसाधनों पर सुरक्षित अधिकारों की भूमिका को अहम माना गया है. 

जिन समुदायों का अपने संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होता है, वो उनका बेहतर प्रबन्धन व संरक्षण कर सकते हैं, जिससे पर्यावरणीय जोखिमों को कम किया जा सकता है. 

आदिवासी समुदायों के लिए सामूहिक संसाधन केवल आर्थिक संसाधन नहीं हैं, बल्कि सूखा और बाढ़ जैसे जलवायु आघातों का सामना करने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार भी हैं.

लैंगिक समानता भी इस चर्चा का केन्द्रीय पहलू है. अक्सर संसाधन एकत्र करने की ज़िम्मेदारी, महिलाओं पर पर होती है, और सामूहिक संसाधनों के क्षरण का सबसे अधिक ख़ामियाजा भी महिलाओं को भुगतना पड़ता है. 

इसका प्रतिकूल प्रभाव उनके अधिकारों, आजीविका और सामाजिक स्थिति पर पड़ता है. सुरक्षित भूमि अधिकार, महिलाओं को इन संसाधनों पर क़ानूनी मान्यता प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें भूमि एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों तक निष्पक्ष तथा समान पहुँच हासिल होती है. 

इसके अलावा, प्राकृतिक संसाधनों के समावेशी शासन और प्रबन्धन से महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है. इससे उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सक्रिय भागेदारी के लिए मज़बूती मिलती है, संसाधनों तक न्यायसंगत पहुँच सुनिश्चित होती है, और सतत प्रथाओं को बढ़ावा देता है.

सामूहिक संसाधनों के उपयोग के लिए ग्राम सभा में विभिन्न नियमों पर चर्चा.

अधिकार-आधारित दृष्टिकोण

सामूहिक संसाधनों को पुनर्स्थापित करने के प्रयास, सतत विकास लक्ष्यों (SDGs), विशेष रूप से “किसी को भी पीछे नहीं छोड़ देने” के सिद्धान्त से मेल खाता हैं. 

यह दृष्टिकोण ऐसा शासन स्थापित करने का आहवान करता है जो पारिस्थितिक पुनर्बहाली, आजीविका, और सामाजिक समानता के बीच सन्तुलन स्थापित करे.

भारत में यूएनडीपी ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय, राज्य जनजातीय कल्याण विभागों और पारिस्थितिकी सुरक्षा संस्थान के साथ मिलकर, समुदाय आधारित संरक्षण को बढ़ावा दिया है. 

भारत के वन अधिकार अधिनियम (FRA) को प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन को मज़बूत बनाकर, वनवासियों, विशेष रूप से अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को मान्यता दी गई है. 

इससे, इन समुदायों को अपने संसाधनों को सतत रूप से प्रबन्धित करने में मदद मिली है.

FRA न केवल आदिवासी अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि जैव विविधता संरक्षण और सतत विकास को भी बढ़ावा देता है. यह अधिनियम, समुदायों को जंगलों के प्रबन्धन का अधिकार देकर, आजीविका की सुरक्षा करने में सहायक साबित होता है.

सामूहिक संसाधन केवल साझा स्थान नहीं हैं; ये हाशिए पर रहने वाले लाखों लोगों के लिए जीवनरेखा के समान हैं. इन संसाधनों का संरक्षण, सामाजिक न्याय, जलवायु सहनशक्षमता एवं सतत विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है.

भारत के वन अधिकार अधिनियम (FRA) को प्रभावी ढंग से लागू करके वनवासियों के अधिकारों को मान्यता दी गई है.

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