भारतीय पारिस्थितिकी विज्ञानी, माधव गाडगिल ने बचपन से ही समाज के सबसे वंचित वर्गों के अधिकारों का सम्मान करना सीखा.
माधव गाडगिल के शुरुआती जीवन की सबसे ख़ास यादों में से एक है, अपने अर्थशास्त्री और राजनेता पिता के साथ महाराष्ट्र राज्य में एक जलविद्युत परियोजना के दौरे पर जाना. उस क्षेत्र में तेज़ी से वनों की कटाई हो रही थी. माधव गाडगिल के पिता अक्सर इसके विरुद्ध आवाज़ उठाते थे.
माधव गाडगिल याद करते हैं, “मेरे पिता ने मुझसे कहा, ‘हमें इस बिजली की ज़रूरत है और भारत के लिए औद्योगिक प्रगति करना बेहद ज़रूरी है. लेकिन क्या हमें इसकी क़ीमत पर्यावरणीय विनाश व स्थानीय लोगों की पीड़ा के रूप में चुकानी चाहिए?’”
“यही वजह है कि लोगों के प्रति सहानुभूति व प्रकृति प्रेम, बचपन में ही मेरे भीतर समाहित हो गया.”
जनता के वैज्ञानिक
ऐसे अनुभवों ने गाडगिल के पारिस्थितिकी दृष्टिकोण को आकार दिया. छह दशकों से अधिक के उनके वैज्ञानिक करियर में उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के गलियारों से लेकर भारत सरकार में उच्चतम स्तर तक का सफ़र पूरा किया. माधव गाडगिल स्वयं को “लोगों का वैज्ञानिक” मानते हैं.
उनके शोध ने हाशिए पर पड़े समुदायों की रक्षा करने, वनों से लेकर आर्द्रभूमि तक, पारिस्थितिकी तंत्र के सामुदायिक संरक्षण को बढ़ावा देने के साथ-साथ, उच्च स्तर पर नीतिगत फ़ैसलों को प्रभावित किया.
माधव गाडगिल ने अपने छह दशकों के वैज्ञानिक जीवन में सात पुस्तकें और कम से कम 225 वैज्ञानिक शोध-पत्र लिखे हैं. लेकिन उनका सबसे उल्लेखनीय कार्य गाडगिल रिपोर्ट है, जिसमें भारत के पर्यावरणीय रूप से नाज़ुक पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र को बढ़ते औद्योगिक ख़तरों एवं जलवायु संकट से बचाने का आह्वान किया गया है.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने उन्हें ‘पृथ्वी चैम्पियन’ पुरस्कार से सम्मानित किया है. यूएन एजेंसी की कार्यकारी निदेशक, इन्गेर ऐंडरसन का मानना है कि माधव गाडगिल ने लोगों एवं सामुदायिक ज्ञान के प्रति गहरा सम्मान दर्शाते हुए, संरक्षण प्रयासों को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया. उन्होंने भारत की कुछ सबसे गम्भीर पर्यावरणीय चुनौतियों के लिए स्थाई समाधान प्रस्तुत किए हैं.
माधव गाडगिल की उम्र 80 से ऊपर हो चुकी है, लेकिन वो अभी भी पूरी शिद्दत से भारत के सबसे नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण के लिए प्रयास जारी रखे हुए हैं.
भूमि क्षरण और आपदाएँ
भारत के लगभग एक-तिहाई भूभाग का क्षरण हो चुका है, जिससे स्थानीय समुदाय आपदाओं के प्रति अत्यधिक सम्वेदनशील हो गए हैं. 2024 में केरल राज्य में भूस्खलन की एक बड़ी त्रासदी में 200 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई, जो हाल के वर्षों की सबसे भीषण आपदाओं में से एक थी.
एक रिपोर्ट के अनुसार, मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण गहन बारिश होने से भूस्खलन हुए, क्योंकि खनन एवं वनों की कटाई से ढलानी इलाक़े कमज़ोर हो गए. गाडगिल रिपोर्ट में 2011 में इस क्षेत्र में अनियंत्रित विकास के नकारात्मक प्रभावों को लेकर चेतावनी दी गई थी.
भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा कमीशन की गई इस रिपोर्ट में गाडगिल व अन्य वैज्ञानिकों ने पश्चिमी घाट क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से सम्वेदनशील क्षेत्रों में विभाजित करने तथा विकास को “पर्यावरण-अनुकूल और जनोन्मुखी” बनाने की सिफ़ारिश की थी.
हालाँकि यह क्षेत्र अभी भी दबाव को झेल रहा है, माधव गाडगिल का मानना है कि उन्होंने भारत में पारिस्थितिकी संरक्षण और पुनर्स्थापना प्रयासों को लेकर बहस की दिशा बदलने में मदद की है.
गाडगिल कहते हैं, “समुदाय अपनी भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं. वे संगठित हो रहे हैं, और हमें उनके साथ मिलकर काम करना होगा. हमें समावेशी विकास और संरक्षण के रास्ते पर आगे बढ़ते रहना चाहिए.”
पर्यावरण के क्षेत्र में असीम योगदान
यह रास्ता गाडगिल के लिए नया नहीं है. भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में अपने दशकों लम्बे कार्यकाल के दौरान, उन्होंने पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र (Centre for Ecological Sciences) की स्थापना की. माधव गाडगिल ने वनवासियों, किसानों व मछुआरा समुदायों के साथ निकटता से काम किया है. उनके प्रयासों में कार्यकर्ताओं और नीति निर्माताओं का सहयोग भी शामिल रहा है.
उनके सबसे बड़े कार्यों में से एक है, भारत के पहले बायोस्फ़ीयर रिज़र्व की स्थापना. बायोस्फ़ीयर, पृथ्वी की सतह पर, उससे नीचे व ऊपर वह क्षेत्र है, जहाँ जीवन का अस्तित्व है. 1986 में उन्होंने पश्चिमी घाट के तीन राज्यों में पारिस्थितिकी सर्वेक्षण किया और जंगलों में समुदायों के बीच रहकर, उनके साथ बातचीत और यात्राएँ की.
आज नीलगिरि बायोस्फ़ीयर रिजर्व भारत का सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है. गाडगिल के सामुदायिक नेतृत्व वाले संरक्षण व संसाधन प्रबन्धन ने, भूमि एवं जैव विविधता संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेष रूप से उस क्षेत्र में जहाँ आवास का क्षरण तथा वनों का विखंडन लम्बे समय से चिन्ता का विषय रहा है.
गाडगिल ने कई सरकारी एजेंसियों और समितियों में सदस्य के रूप में काम किया, जिनमें प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद भी शामिल है. वह भारत के जैविक विविधता अधिनियम (Biological Diversity Act) के मुख्य रचनाकारों में से एक थे और वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) के कार्यान्वयन में भी शामिल थे.
इन क़ानूनों के जरिये माधव गाडगिल ने वन समुदायों को अपने स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में, जैव विविधता की निगरानी के लिए जैव विविधता रजिस्टर तैयार करने में मदद की है. इन रजिस्टरों के ज़रिये, स्थानीय समुदाय बाँस, फल, मछली और पौधों जैसे वन उत्पादों का लेखा-जोखा रखने व उनके सर्वोत्तम उपयोग की योजना बनाने में सक्षम हो पाए हैं.
महाराष्ट्र के एक गाँव में, स्थानीय पर्यावरण संरक्षकों ने पाया कि नदी में छोड़े जा रहे ज़हरीले रसायनों के कारण मछलियों की आबादी घट रही थी. गाडगिल के बताया कि आसपास के कई गाँवों ने इन रसायनों पर प्रतिबन्ध लगाने पर सहमति जताई, जिसके बाद से नदी की जैव विविधता में सुधार हुआ.
गाडगिल बताते हैं कि कुछ गाँवों ने जैव विविधता रजिस्टर का उपयोग, खनन के पर्यावरणीय प्रभाव दर्ज करने और इस प्रथा के विरुद्ध अदालत में लड़ाई लड़ने के लिए भी किया है. गाडगिल कहते हैं, “कई गाँवों में सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं और यह देखकर बहुत संतुष्टि मिलती है,”
युवजन के लिए प्रेरणा स्रोत
पर्यावरण संरक्षण में माधव गाडगिल के व्यापक योगदान के कारण उन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान, पद्मश्री औरपद्मभूषण के साथ-साथ, टायलर पुरस्कार तथा वोल्वो पर्यावरण पुरस्कार जैसे अन्तरराष्ट्रीय सम्मान भी प्राप्त हुए हैं.
लेकिन इतने सम्मान और उपलब्धियों के बावजूद, गाडगिल रुके नहीं हैं, वो आगे बढ़ते जा रहे हैं.
माधव गाडगिल अब गाँव के युवाओं को उनके सामुदायिक वन अधिकारों के बारे में शिक्षित करने तथा उनके आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र की बेहतर समझ बनाने में मदद कर रहे हैं.
उन्होंने बताया कि एक लड़का, जिसे पौधों की तस्वीरें खींचने व अपने स्मार्टफोन से प्रजातियों की पहचान करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, उसके द्वारा पोस्ट की गई तस्वीरों में स्थानीय वनस्पति विशेषज्ञों ने एक दुर्लभ भूमि ऑर्किड को पहचाना. उन्होंने इस खोज पर एक वैज्ञानिक शोध पत्र प्रकाशित किया, जिसमें उस लड़के को सह-लेखक के रूप में शामिल किया गया.
गाडगिल का मानना है कि प्रौद्योगिकी में प्रगति व सार्वजनिक रूप से उपलब्ध वैज्ञानिक जानकारी में वृद्धि से, ज़्यादा संख्या में समुदाय अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु प्रेरित होंगे. यह भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, जो जलवायु संकट के बढ़ते प्रभावों का सामना कर रहा है.
वो कहते हैं, “मुझे संतोष है कि एक वैज्ञानिक के रूप में, जिसने लोगों के प्रति सहानुभूति रखी, मैंने ऐसे काम किए हैं जिन्होंने घटनाओं की दिशा बदलने में मदद की है. मैं एक दृढ़ आशावादी हूँ – और मुझे विश्वास है कि यह प्रगति गति पकड़ती रहेगी.”
गाडगिल कहते हैं, “समुदाय अपने भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं. वे संगठित हो रहे हैं,और हमें उनके साथ मिलकर काम करना होगा. हमें समावेशी विकास एवं संरक्षण के रास्ते पर चलते रहना होगा.”