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डीपीआर कोरिया: संस्थागत, ख़तरनाक ढंग से जबरन श्रम कराए जाने के मामलों पर क्षोभ

जबरन मज़दूरी के 183 पीड़ितों व प्रत्यक्षदर्शियों के साथ हुई बातचीत के आधार पर तैयार रिपोर्ट मंगलवार को प्रकाशित की गई है. ये भुक्तभोगी डीपीआर कोरिया से बचकर भाग निकले और अब विदेश में रहते हैं.

यूएन मानवाधिकार कार्यालय ने एक व्यक्ति के हवाले से बताया कि दैनिक कामकाज का अपना हिस्सा पूरा नहीं किए जाने पर श्रमिकों की पिटाई और उनकी भोजन रसद में कटौती की जाती थी.

यूएन कार्यालय प्रवक्ता लिज़ थ्रोसेल ने बताया कि इन लोगों को असहनीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता था, अक्सर ख़तरनाक सैक्टर में बिना किसी वेतन के.

ना ही उनके पास काम छोड़ने की क्षमता, संरक्षण, मेडिकल देखभाल, अवकाश, भोजन और शरण की व्यवस्था थी.

“उनकी निरन्तर निगरानी की जाती है, नियमित रूप से पिटाई की जाती है, जबकि महिलाओं को लगातार यौन हिंसा के ख़तरे का सामना करना पड़ता है.”

डीपीआर कोरिया, जिसे उत्तर कोरिया के तौर पर भी जाना जाता है, पर केन्द्रित इस रिपोर्ट में जबरन मज़दूरी कराए जाने के छह प्रकार के मामलों को चिन्हित किया गया है.

इनमें श्रमिकों को हिरासत में रखना, सरकार द्वारा रोज़गार देना, सैन्य बलों में भर्ती कराया जाना और ऐसे समूहों (शॉक ब्रिगेड) में शामिल किया जाना, जहाँ उन्हें कठिन श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता है – अक्सर निर्माण क्षेत्र व कृषि में.

यूएन कार्यालय की इस रिपोर्ट के अनुसार, हिरासत केन्द्रों में हालात के प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त की गई है, जहाँ पीड़ितों को व्यवस्थागत ढंग से शारीरिक हिंसा के ख़तरे व अमानवीय परिस्थितियों में श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता है.

रिपोर्ट के अनुसार, डीपीआरके में जबरन श्रम का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने को दासता की श्रेणी में रखा जा सकता है, जोकि मानवता के विरुद्ध एक अपराध है.

विशाल व्यवस्था

यह दर्शाती है कि उत्तर कोरियाई नागरिकों को एक विस्तृत व कईं परतों तक फैली जबरन श्रम व्यवस्था के ज़रिये नियंत्रित व शोषित किया जाता है, जोकि देश के नागरिकों के बजाय राजसत्ता के हितों पर लक्षित है.

सैन्य बलों में भर्ती किए गए लोगों को कम से कम 10 साल के लिए यह सेवा देनी होती है. उन्हें नियमित रूप से कृषि व निर्माण क्षेत्र में काम करने के लिए नियमित रूप से मजबूर किया जाता है.

एक सैन्य अस्पताल में पूर्व नर्स ने अपनी अनिवार्य सेवा के दौरान सैनिकों का उपचार किया था. उन्होंने बताया कि यह काम कठिन व ख़तरनाक है, और इसे बिना पर्याप्त स्वास्थ्य व बचाव उपायों के करना पड़ता है.

उनके अनुसार अनेक सैनिक कमज़ोर और बुरी तरह थके हुए होते थे, वे कुपोषित थे और टीबी से संक्रमित भी.

शॉक ब्रिगेड में भर्ती सैनिकों को अक्सर महीनों या वर्षों तक तैनात रहना पड़ता है और उन्हें काम के बदले बहुत मामूली वेतन दिया जाता है या फिर यह भी नहीं मिल पाता. 

महिलाएँ अपने परिवारों के लिए अक्सर आय का मुख्य स्रोत होती हैं, और उन पर तैनाती के लिए लामबन्दी का असर पड़ता है.

विदेश भेजा जाना

ऐसे आरोप भी सामने आए हैं कि डीपीआरके द्वारा चुनिन्दा नागरिकों को विदेश में कामकाज के लिए भेजा जाता है और वे अपने देश के लिए विदेशी मुद्रा कमाते हैं. उनकी 90 फ़ीसदी आय तक को राजसत्ता द्वारा लिया जा सकता है.

एक बार काम करने के लिए तैयार होने के बाद, ये उत्तर कोरियाई नागरिक निरन्तर निगरानी में रहते हैं और उनके पासपोर्ट को ज़ब्त कर लिया जाता है.

ये बेहद कम जगह वाले स्थानों में रहते हैं, उन्हें काम से अवकाश शायद ही मिल पाता है, और ना ही अपने परिवारों से उनका कोई नियमित सम्पर्क हो पाता है.

रिपोर्ट के अनुसार, संस्थागत श्रम व्यवस्था की शुरुआत स्कूल से होती है, जहाँ बच्चों को नदियों के आसपास के इलाक़े को साफ़ करने और वृक्षारोपण के लिए मजबूर किया जाता है. एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि बचपन से ही आपको सेवा के लिए तैयार रखना पड़ता है.

उन्मूलन का आग्रह

यूएन मानवाधिकार कार्यालय की इस रिपोर्ट में डीपीआरके सरकार से जबरन श्रम के इस्तेमाल का उन्मूलन करने और दासता के किसी भी रूप का अन्त करने का आग्रह किया है.

साथ ही, अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से अन्तरराष्ट्रीय अपराधों को अंजाम देने वाले संदिग्ध व्यक्तियों की जाँच करने और दोषियों की जवाबदेही तय करने के लिए मुक़दमा चलाया जाना होगा.

रिपोर्ट में सुरक्षा परिषद से मांग की गई है कि ऐसी परिस्थिति को अन्तरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के संज्ञान में लाया जाना होगा.

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