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ग़ाज़ा: सुरक्षा परिषद में अमेरिकी वीटो के बाद, यूएन महासभा की बैठक

ग़ाज़ा: सुरक्षा परिषद में अमेरिकी वीटो के बाद, यूएन महासभा की बैठक

यूएन महासभा के उपाध्यक्ष चेयख निएंग ने महासभा प्रमुख डेनिस फ़्रांसिस की ओर से वक्तव्य पढ़ा और फ़लस्तीन पर प्रश्न समेत मध्य पूर्व में हालात पर आपात विशेष सत्र की अध्यक्षता की. 

महासभा अध्यक्ष ने अपने वक्तव्य में पिछले महीने सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव 2720 के पारित होने का स्वागत किया, जिसमें ग़ाज़ा पट्टी में सुरक्षित, निर्बाध ढंग से मानवीय सहायता का  स्तर बढ़ाने और उसे वहाँ पहुँचाने का मार्ग मुहैया कराने का आग्रह किया गया है.

साथ ही, हिंसक टकराव पर सतत विराम लगाने के लिए भी परिस्थितियों का निर्माण करना होगा.

उन्होंने ग़ाज़ा में सभी युद्धरत पक्षों से सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और महासभा में 12 दिसम्बर के प्रस्ताव को पूर्ण रूप से लागू किए जाने का आग्रह किया, जिसमें युद्धविराम की पुकार लगाई गई है.

डेनिस फ्रांसिस ने सभी सदस्य देशों से आम नागरिकों के जीवन की रक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया है, जोकि उनके अनुसार, मंगलवार को हुई बैठक में सबसे अहम साझा लक्ष्य है.

महासभा प्रस्ताव के आधार पर चर्चा

वर्ष 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की पृष्ठभूमि में, यूएन महासभा ने सुरक्षा परिषद के साथ सहयोग को मज़बूती देने के इरादे से एक प्रस्ताव पारित किया था.

सुरक्षा परिषद में वीटो अधिकार का इस्तेमाल किए जाने की स्थिति में यह स्वत: महासभा की बैठक का रास्ता स्पष्ट कर देता है. 

वीटो, सुरक्षा परिषद के पाँच स्थाई सदस्य देशों — चीन, फ़्राँस, रूस, ब्रिटेन, अमेरिका — के पास एक ऐसा विशेष अधिकार है जिसमें नकारात्मक वोट डाले जाने की स्थिति में प्रस्ताव या कोई निर्णय विफल हो जाता है. 

यूएन महासभा द्वारा पारित प्रस्ताव में वीटो अधिकार के इस्तेमाल की समीक्षा की जाती है, जिसके तहत महासभा प्रमुख द्वारा 10 कामकाजी दिनों के भीतर एक औपचारिक चर्चा आयोजित कराई जाती है.

अनुशंसा का अवसर

इसके ज़रिये, महासभा के 193 सदस्य देशों के वृहद निकाय में हर देश के पास अपनी बात कहने का अधिकार होता है.

इस प्रस्ताव की मंशा, यूएन के सदस्य देशों को अनुशंसाएं प्रदान करने का अवसर देना है, जिसमें शान्ति स्थापना या बहाली के लिए सैन्य बलों के इस्तेमाल की सिफ़ारिश भी हो सकती है.  

महासभा द्वारा पारित किए जाने वाले हर प्रस्ताव की तरह, इस व्यवस्था के साथ नैतिक व राजनैतिक वज़न जुड़ा है, लेकिन ये क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं.

ना ही, इनके पास अन्तरराष्ट्रीय क़ानून की शक्ति है, जैसाकि अक्सर सुरक्षा परिषद में तय किए गए क़दमों में होता है.

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