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सत्ता साझा करने का फॉर्मूला कितना कारगर?

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कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद को लेकर मचे घमासान का पटाक्षेप हो गया है। सिद्धरमैया के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरूढ़ होने के बाद कम से कम फिलहाल तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।

मगर इस बात को लेकर स्थिति अब भी साफ नहीं लग रही है कि सिद्धरमैया और उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी डी के शिवकुमार बार-बारी से मुख्यमंत्री बनने के समझौते पर सहमत हुए हैं या नहीं।

यह बात भी समझ से परे है कि इस समझौते को इतना गुप्त क्यों रखा जा रहा है। यह सत्ता साझा करने का अब सामान्य फॉर्मूला हो गया है और दुनिया के कई देशों में ऐसा हो भी चुका है।

उदाहरण के लिए इजरायल, मलेशिया और यहां तक कि ब्रिटेन में सत्ता साझा करने का सिद्धांत आजमाया गया है। ब्रिटेन में 1994 में लेबर पार्टी के तत्कालीन नेता जॉन स्मिथ के आकस्मिक निधन के बाद पार्टी के दो दिग्गज नेताओं टोनी ब्लेयर और गॉर्डन ब्राउन के बीच एक बैठक हुई। दोनों नेताओं के बीच हुए इस समझौते को ‘ग्रनिटा समझौता’ भी कहा जाता है।

माना जाता है कि लंदन के इस्लिंगटन के एक रेस्तरां ग्रनिटा में दोनों नेताओं के बीच आपसी सहमति बनी थी। दोनों नेता इस बात पर राजी हुए कि ब्राउन लेबर पार्टी के नेता के चुनाव में खड़ा नहीं होंगे ताकि ब्लेयर की जीत आसान हो जाए। यह भी तय हुआ कि ब्लेयर इसके बदले ब्राउन को वित्त मंत्री बनाएंगे और घरेलू नीति पर उन्हें विशेष अधिकार देंगे।

ऐसा माना जाता है कि ब्लेयर सहमत हो गए कि अगर वह प्रधानमंत्री बने तो केवल दो कार्यकाल तक ही रहेंगे और उसके बाद पार्टी की कमान ब्राउन को सौंप देंगे। मगर ब्लेयर ने ऐसा नहीं किया और बाद में दोनों नेताओं के बीच जमकर छींटाकशी हुई।

भारत में दो मुख्य राजनीतिक दलों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस की कार्यशैली को देखते हुए थोड़ा आश्चर्य हो रहा है कि सत्ता साझा करने का सिद्धांत लोकप्रिय होने में इतना अधिक समय क्यों लगा। यह फॉर्मूला पहली बार जम्मू कश्मीर में 2022 में आजमाया गया था और इसमें डॉ. मनमोहन सिंह मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे।

यद्यपि, गुलाम नबी आजाद का कहना है कि वास्तव में उन्होंने बारी-बारी से सत्ता साझा करने की योजना का प्रस्ताव दिया था। अपनी जीवनी में आजाद ने लिखा कि उन्होंने मुफ्ती मोहम्मद सईद को इस फॉर्मूले की पेशकश की थी और उन्हें कहा था कि मुख्यमंत्री का पद दोनों दलों के पास बारी-बारी से रह सकता है।

मगर मुफ्ती इस बात पर अड़ गए कि चूंकि, उनकी पार्टी को कश्मीर घाटी में अधिक सीटें मिली हैं इसलिए पहले तीन वर्षों तक वह राज्य के मुख्यमंत्री रहेंगे। दूसरी तरफ सोनिया गांधी का कहना था कि उनकी पार्टी के अधिक विधायक (42) जीत कर आए हैं इसलिए आजाद को मुख्यमंत्री बनने का पहला मौका मिलना चाहिए।

आजाद ने अपनी जीवनी में कहा है, ‘इसी समझौते की बदौलत केवल 16 विधायकों के साथ राज्य में तीसरे स्थान पर रहने वाली मुफ्ती की पार्टी का मुख्यमंत्री (मुफ्ती) बना जबकि 42 विधायकों का समर्थन होने के बावजूद मुझे राष्ट्रीय राजनीति में लौटना पड़ा।’

मुफ्ती अपने वादे पर खरा उतरे। अपनी बारी समाप्त होने पर उन्होंने आजाद को कुर्सी पर बैठने का मौका दे दिया। मगर 2006 में कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। तब एच डी कुमारस्वामी राजनीतिक दांव-पेच का इस्तेमाल कर भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने में सफल रहे थे। कुमारस्वामी की पार्टी के 45 विधायक थे जबकि भाजपा के पास 79 विधायक थे।

दोनों दलों के बीच 2009 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले तक 20-20 महीने सत्ता साझा करने का समझौता हुआ था। मगर अपनी बारी पूरी होने के बाद कुमारस्वामी समझौते की शर्त पूरी नहीं कर पाए। कुमारस्वामी के बाद बी एस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने मगर वह केवल सात दिन ही पद पर रहे। कुमारस्वामी ने समर्थन वापस ले लिया जिससे गठबंधन सरकार गिर गई।

2018 में छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को शानदार जीत मिली। चुनाव में पार्टी को 90 सीट मिलीं, जबकि भाजपा मात्र 15 सीट तक सिमट कर रह गई। राज्य में कांग्रेस का नया चेहरा प्रस्तुत करने की राहुल गांधी की योजना के तहत ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया। निवर्तमान विधानसभा में त्रिभुवनेश्वर सरण सिंह देव नेता प्रतिपक्ष थे।

वह नई सरकार में बड़ा पद मिलने की उम्मीद कर रहे थे, यहां तक कि मुख्यमंत्री पद पाने तक की लालसा उनके मन में थी। मगर भूपेश बघेल को भी विधायकों का समर्थन था। बघेल और सिंह देव कांग्रेस आलाकमान से बात करने दिल्ली गए थे। दिल्ली में दोनों नेताओं को मुख्यमंत्री पद दिए जाने के संबंध में कुछ आश्वासन दिए गए।

मगर जब वे रायपुर पहुंचे तो उन्होंने पाया कि साहू के समर्थक आतिशबाजी कर रहे थे। साहू को मुख्यमंत्री पद की होड़ से बाहर करने के लिए वे बारी-बारी से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के अहमद पटेल के फॉर्मूले पर तैयार हो गए। मगर कोविड संक्रमण से पटेल का निधन हो गया और बघेल मुख्यमंत्री पद को लेकर हुए समझौते को भूल गए।

सिंह देव केवल यह कहते रह गए कि उन्हें कार्यकाल के दूसरे हिस्से में मुख्यमंत्री पद दिए जाने का आश्वासन दिया गया था। बघेल अब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। राजस्थान में भी गहलोत-पायलट के बीच सत्ता संघर्ष कुछ इसी दिशा में बढ़ रहा है।

सच्चाई यह है कि जिस तरह केंद्र में प्रधानमंत्री के हाथों में सत्ता की पूरी बागडोर होती है उसी तरह राज्य में मुख्यमंत्री ही सर्वेसर्वा होता है। उप-मुख्यमंत्री के पास वास्तविक अधिकार नहीं होते हैं, जब तक कि उसे कोई भारी भरकम विभाग नहीं दिए जाएं।

केंद्र में लाल कृष्ण आडवाणी ने जसवंत सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस से स्वयं को उप-प्रधानमंत्री बनाने की अनुशंसा अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष करवाई। आडवाणी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव ब्रजेश मिश्रा के वाजपेयी पर प्रभाव से स्वयं को असहज पा रहे थे। आडवाणी उप-प्रधानमंत्री तो बने मगर इससे कोई अंतर नहीं आया और सब कुछ पहले की तरह ही रहा।

अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि दो राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को शांत रखने के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी बारी-बारी से साझा करने का फॉर्मूला तभी कारगर हो सकता है जब यह विश्वसनीय हो और संबंधित पक्ष इसका पालन ईमानदारी से करें। अन्यथा उप-मुख्यमंत्री का पद, जैसा कि शिवकुमार को मिला है, केवल सुनने में वजनदार लगता है।

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