राजनीति

रामचरितमानस विवाद को दूसरा मंडल-कमंडल बनाना चाहते हैं अखिलेश यादव

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स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्हें पदोन्नति दिए जाने से यह साफ है कि जिन लोगों को लगता था कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ‘साफ-सुथरी’ राजनीति करते हैं, उनको अपना यह भ्रम दूर कर लेना चाहिए।

समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की रामचरितमानस पर एक विवादित टिप्पणी के बाद राजनीति के गलियारों में यह बात बड़े जोरों शोरों से फैलाई जा रही थी कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने बड़बोले नेता स्वामी के बयान से काफी नाराज हैं और उनके खिलाफ सख्त एक्शन ले सकते हैं। यह खबर बाकायदा मीडिया में भी खूब चली थी, यहां तक कि सपा की एक नेत्री ने तो स्वामी को बसपा का एजेंट बता दिया था। कुछ समय पूर्व समाजवादी पार्टी में लौट कर आए शिवपाल यादव ने रामचरितमानस पर स्वामी के बयान को उनकी निजी राय बताते हुए पार्टी की तरफ से पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन दस दिन भी नहीं बीते होंगे कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस विवादित शख्स स्वामी प्रसाद के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की बजाय उन्हें समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठा कर यह साबित कर दिया है कि उनके लिए राजनीति से इतर कुछ भी नहीं है। अपनी राजनीति चमकाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसीलिए तो पहले अपने पिता-चाचा का अपमान करने वाले अखिलेश यादव को  उनकी अपनी ही पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की रामचरितमानस पर की गई विवादित टिप्पणी में कुछ बुरा नहीं लगा होगा अन्यथा वह स्वामी प्रसाद मौर्य को इतनी जल्दी पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नहीं बना देते।

वैसे यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि समाजवादी पार्टी का उत्थान ही भगवान राम का अपमान करने से हुआ है। पिता मुलायम सिंह यादव राम भक्तों पर गोली चलाने के लिए अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते थे तो बेटा अखिलेश यादव उन लोगों की पैरोकारी कर रहा है जो रामचरितमानस को लेकर अपमानजनक टिप्पणी करते हैं। कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी का चाल चरित्र चेहरा ऐसा ही है। आज जिस तरह से हिंदुओं के धर्म ग्रंथों के खिलाफ खिलाफ स्वामी प्रसाद मौर्य बोल रहे हैं, वैसे ही कभी आजम खान, सपा सांसद शफीक उर-रहमान बर्क और मुरादाबाद के सांसद एसटी हसन जैसे तमाम नेता बोलते रहते हैं। हिंदुओं को बांट और लड़ा कर ही यह पार्टी सत्ता में आती है और तुष्टीकरण की सियासत करती है। ईद के दौरान इफ्तार के समय मुस्लिम लबादा ओढ़कर वहां पहुंच जाना समाजवादी नेताओं की दिनचर्या बन जाती है।

पिछले करीब एक दशक, जबसे मोदी ने हिंदुओं को एकजुट किया है, तबसे हिंदुओं को बांटने में यह पार्टी सफल नहीं हो पाई, तो सत्ता भी इसके हाथों से खिसक गई। इस पार्टी के नेता आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमे वापस लेते हैं, बलात्कार की घटनाओं पर कहा जाता है कि लड़कों से गलती हो जाती है, तो उसे फांसी थोड़ी दे दी जाएगी। सत्ता में रहकर कब्रिस्तान की बाउंड्री वॉल के लिए पैसा बांटते हैं। हिंदू कन्याओं को छोड़कर मुस्लिम लड़कियों को वजीफा देते हैं। दंगों के समय दंगाइयों का धर्म देखकर उनके खिलाफ कार्रवाई करते हैं। सत्ता में रहते थाने से अपराधियों को छुड़ाने जाने का इनका इतिहास रहा है। यह वही पार्टी है जो मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, डीपी यादव जैसे बाहुबलियों और यहाँ तक कि डकैतों के परिवार वालों तक को चुनाव लड़ा चुकी है।

बहरहाल, स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्हें पदोन्नति दिए जाने से यह साफ है कि जिन लोगों को लगता था कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ‘साफ-सुथरी’ राजनीति करते हैं, उनको अपना यह भ्रम दूर कर लेना चाहिए। असल में वह अपने पिता मुलायम सिंह यादव के ही दिखाए रास्ते पर चल रहे हैं यानि मीठा-मीठा हप, कड़वा कड़वा थू। समाजवादी पार्टी की नई कार्यकारिणी में स्वामी प्रसाद मौर्य को राष्ट्रीय महासचिव का पद मिलने के बाद स्वामी सपा के उन शीर्ष 14 नेताओं में शामिल हो गए हैं, जिन्हें यह पद दिया गया है। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव के रूप में अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के सीनियर नेता आजम खान और पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष चाचा शिवपाल यादव को भी जगह दी है। ऐसे में यूपी चुनाव 2022 के ठीक पहले समाजवादी पार्टी में आने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य को यह अहम पद दिए जाने पर पार्टी के भीतर भी विवाद गहराना शुरू हो गया है।

इसी क्रम में अखिलेश लखनऊ के मां पीतांबरा महायज्ञ परिक्रमा में पहुंचे। वहां उन्हें हिंदूवादी संगठनों के विरोध का सामना करना पड़ा। इस दौरान अखिलेश यादव मुर्दाबाद के नारे लगे। स्वामी प्रसाद मौर्य पर कार्रवाई की मांग लोग कर रहे थे। लेकिन, इन मांगों से इतर अखिलेश यादव ने पूरे मुद्दे को भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस से जोड़कर रुख पलटने की कोशिश कर दी है। घटना के एक दिन बाद रविवार  29 जनवरी को स्वामी प्रसाद मौर्य को अहम पद देकर उन्होंने करीब 32 साल पहले मुलायम सिंह यादव के फैसले की याद दिला दी है।

वर्ष 1990 के आसपास मंडल और कमंडल की राजनीति चरम पर थी। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी श्रीराम जन्मभूमि के मुद्दे को गरमा रही थी। राम मंदिर के नारे लग रहे थे। देश में रथ यात्रा निकाली जा रही थी। दूसरी तरफ, मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेता मंडल की राजनीति के जरिए राजनीतिक मैदान में अपने पांव जमा रहे थे। वर्ष 1990 में मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री थे। अयोध्या में कारसेवा की घोषणा हुई थी। मुलायम सिंह यादव ने किसी भी स्थिति में कारसेवा न होने देने की घोषणा की। हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया। इसके बाद भी मुलायम सिंह यादव नहीं झुके नहीं थे। अयोध्या में कारसेवक जुटे। विवादित बाबरी मस्जिद परिसर की तरफ बढ़े। कार सेवा की घोषणा पहले से हो चुकी थी। ऐसे में कारसेवकों को रोकने के लिए गोलियां चलवाई गईं। कारसेवकों का खून बहा। इसके बाद भी सरकार नहीं पिघली। मुलायम सिंह यादव को तब मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा था। लेकिन, उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। रामचरितमानस पर उठे विवाद के बीच चारों तरफ स्वामी प्रसाद मौर्य का विरोध हो रहा है। यहां तक कि समाजवादी पार्टी में भी कई नेता उनके बयान से सहमत नहीं हैं। वहीं अखिलेश यादव कुल मिलाकर अगड़े पिछड़ों की राजनीति करने में लगे हैं जैसे कि उनके पिता ने सत्ता पाने के लिए हिंदुओं को बांटने के लिए मंडल कमंडल की राजनीति की थी।

-अजय कुमार

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