अस्पताल के गलियारे से गुजरते हुए ललिता बाई का दिल चिन्ता के कारण तेज़ी से धड़क रहा था. ललिता का नवजात शिशु पिछले 12 दिनों से, मध्य प्रदेश में गुना ज़िले के सरकारी अस्पताल की विशेष नवजात शिशु देखभाल इकाई (SNCU) में भर्ती था.
मशीनों की धीमी गूँज व नर्सों की देखभाल के बीच उनका नवजात शिशु, जीवन के लिए संघर्ष कर रहा था. ललिता हर रोज़ अपने बच्चे के पास खड़ी होकर उसके नन्हें हाथों और माथे को छूकर, उसके कान में प्यार भरे शब्द फुसफुसाती रही हैं.
आज जब ललिता इन्क्यूबेटर के पास पहुँचीं, तो उन्हें कुछ अलग अहसास हुआ. कमरे में सन्नाटा छाया था, मानो वहाँ उनका ही इन्तज़ार हो रहा हो.
ललिता ने, काँपती उँगलियों से अपने नन्हें शिशु का हाथ छुआ. उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब उनके स्पर्श से उनके बच्चे ने आँख खोल दी और उसके हाथों ने भी हरकत की.
इस नवजात शिशु ने, अपने जन्म के 12 दिनों बाद पहली बार अपनी आँखें खोली थीं. ललिता भाव-विह्वल हो उठीं और उनकी आँखों से ख़ुशी के आँसू बह उठे.
वो हैरानी से अपने बच्चे का हाथ हिलते हुए देख रही थीं – जीवन की एक छोटी लेकिन पुख़्ता उम्मीद का संकेत सामने था.
यह छोटी सी हरकत, मानो आने वाले बेहतर दिनों का एक वादा हो. उन्होंने बच्चे के और क़रीब झुककर, प्यार से फुसफुसाया “मेरा बच्चा.”
ऐसे मामलों में ललिता अकेली माँ नहीं है. समय से पहले जन्म होने के कारण, ममता और बिवोद की छोटी बच्ची भी SNCU में भर्ती थी.
16 दिन तक विशेष नवजात शिशु देखभाल इकाई में रखने के बाद, बच्ची को वार्ड में भेज दिया गया था. बिवोद ने बताया, “यह हमारी पहली सन्तान है. हमें भरोसा नहीं था कि यह जीवित बच पाएगी. लेकिन, डॉक्टरों और नर्सों के समर्पण व सहयोग का परिणाम है कि आज हम अपनी बच्ची को लेकर अपने घर वापिस लौट रहे हैं.”

माता-पिता के लिए आशा की किरण
आज देश भर में मौजूद विशेष नवजात शिशु देखभाल इकाइयाँ (SNCU), हज़ारों नवजात शिशुओं की जान बचाने के प्रयासों में लगी हैं. इसकी शुरुआत हुई वर्ष 2003 में पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले में उठाए गए छोटे क़दम के साथ.
भारत में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर घटाने के लिए, यहाँ पहली 12-बेड वाली बीमार व नवजात देखभाल इकाई स्थापना की गई.
यह पहल, यूनीसेफ़, शोध संगठन सोसाइटी फॉर एप्लाइड स्टडीज, कोलकाता (SASK) तथा पुरुलिया के ज़िला स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण समिति एवं ज़िला परिषद की साझेदारी से शुरू की गई थी.
भारत में यूनीसेफ़ के स्वास्थ्य विशेषज्ञ विवेक वीरेंद्र सिंह बताते हैं, “इस पायलट परियोजना के कारण एसएनसीयू सुविधा में नवजातों की मृत्यु दर में काफ़ी कमी आई है, जिसका सीधा असर कुल नवजात मृत्यु दर पर पड़ा है.”
“इस पहल से स्पष्ट होता है कि सरकारी अस्पतालों में ज़िला स्तर पर भी बीमार नवजात शिशुओं के लिए अत्याधुनिक देखभाल प्रदान करना सम्भव है.”
मिसाल पेश करता मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश सरकार के बाल स्वास्थ्य, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की उप निदेशक, डॉक्टर हिमानी यादव का कहना है, “मध्य प्रदेश को एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र होने के कारण, नवजात शिशुओं की मृत्यु से निपटने में अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ा है.”
“सरकार ने, यूनीसेफ़ के सहयोग से वर्ष 2007 में गुना ज़िले में, प्रदेश का पहली एसएनसी यूनिट स्थापित की, जिसके बाद शिवपुरी में एक और इकाई स्थापित की गई.”
एसएनसी इकाइयाँ, आवश्यक उपकरणों और प्रशिक्षित बाल रोग विशेषज्ञों और नर्सों के साथ-साथ अन्य सहायक कर्मचारियों से सुसज्जित हैं.
इससे ग्रामीण क्षेत्रों में एक आधुनिक सुविधा पहुँचाने में मदद मिली है, जो सबसे छोटे व कमज़ोर नवजात शिशुओं के जीवन की रक्षा करने में बेहद कारगर साबित हो रही है.
इन इकाइयों ने जैसे ही काम करना शुरू किया, आम लोगों और नवजात मृत्यू दर पर इनका प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा. इसके ज़रिए गाँवों तक नवजातों की देखभाल के लिए आधुनिक सुविधाएँ पहुँच रही हैं.

डॉक्टर हिमानी बताती हैं, “मॉडल की सफलता ने सरकार को एसएनसीयू परियोजना, हिमाचल प्रदेश से तमिलनाडु व अन्य राज्यों में शुरू करने का प्रोत्साहन मिला. आज देश भर में 1054 एसएनसीयू सुचारू रूप से चल रहे हैं, जिससे हर साल हज़ारों नवजात शिशुओं की जान बच रही है.”
मध्य प्रदेश में शुरू हुआ यह छोटा सा मॉडल, राष्ट्रव्यापी परियोजना के रूप में उभरा है.”
उत्तर प्रदेश सरकार में चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के मुख्य सचिव पार्थ सारथी सेन शर्मा का कहना है, “इसमें यूनीसेफ़ ने पूरा सहयोग दिया है. यूनीसेफ़ और एनएचएम के सहयोग से हम एसएनसीयू में सीपीएपी संचालन का एकीकरण करने में सक्षम हुए हैं.”
आज देशभर में स्थापित 1054 विशेष नवजात देखभाल इकाइयाँ (SNCU), नवजात शिशुओं की जान बचाकर अनगिनत परिवारों के लिए आशा की किरण बन गई हैं.
जैसाकि उत्तर प्रदेश के एक क़स्बे में रहने वाली मालती मयूरिया कहती हैं, “मेरे बच्चे को जन्म से दिल की समस्या थी और उसका वज़न भी कम था. जन्म के समय उसे देखकर लगता नहीं था कि वो जीवित बच सकेगा. लेकिन आज वो हमारे साथ है.”
मालती की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए थे.

जीवन बचाने के सामूहिक प्रयास
शुरू से ही इस परियोजना का हिस्सा रहे SNCU प्रभारी डॉक्टर पी एन वर्मा इसकी अविश्वसनीय प्रगति की कहानी बताते हैं, “अब हम हर महीने 300 से अधिक नवजात शिशुओं की जान बचाते हैं. यह 2007 में हमारी शुरुआती संख्या से चार गुना अधिक है.”
उनकी टीम न केवल उनके भर्ती होने के दौरान शिशुओं का उपचार करती है, बल्कि परिवारों को भविष्य में शिशु देखभाल के लिए भी तैयार करती है. वो यह सुनिश्चित करते हैं कि घर पर भी बच्चों का पालन-पोषण अच्छे ढंग से किया जाए.
डॉक्टर हिमानी यादव माता-पिता और डॉक्टरों के बीच के मानवीय जुड़ाव के बारे में बताते हुए कहती हैं, “हमारा काम नवजात शिशु को एसएनसीयू में भर्ती कराने के साथ ही शुरू हो जाता है, और बच्चे के पूर्णत: स्वस्थ होने तक जारी रहता है.”
“हम बच्चे की देखभाल के लिए पिता समेत परिवार के सभी सदस्यों को उनकी ज़िम्मेदारी समझाते हैं, क्योंकि बच्चा केवल माता-पिता ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी होता है.
अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद बच्चा, “आशा दीदी” (यानि एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता – ASHA) की सतर्क निगरानी में रहता है.
‘आशा दीदी’ माता-पिता को तय अन्तराल पर नियमित जाँच करने में मदद करती हैं. माता-पिता को घर से अस्पताल तक आने-जाने के लिए एक निःशुल्क एम्बुलेंस सेवा उपलब्ध करवाई गई है.
बिवोद जैसे नए माता-पिता के लिए आशा दीदी की मदद अमूल्य है. बिवोद गर्व से बताते हैं, “मैंने और मेरी पत्नी ने अपने बच्चे की देखभाल करना आशा दीदी से सीखा. आपातस्थिति में किसी भी समय हम उनसे मदद ले सकते हैं.”
