भारत के पूर्वी प्रदेश छत्तीसगढ़ के दूरदराज़ आदिवासी क्षेत्र में, 60 वर्षीय सोमारी बाई, सिर पर साड़ी का पल्लू डालकर अपने-आपको तपती धूप से बचाते हुए, धान के खेत में काम कर रही हैं. तेज़ी के साथ फ़सल की कटाई करते उनके हाथों में सालों का अनुभव झलकता है. यह फ़सल उनकी जीवनरेखा बन चुकी है.
सोमारी बाई अपना जीवन सफ़र याद करते हुए कहती हैं, “मेरा जीवन बहुत कठिन रहा है. ये कड़ी मेहनत ही है जिसने मेरे परिवार को जीवित रखा,”
गोंड जनजाति की सदस्य सोमारी बाई के जीवन ने शुरू में ही एक दर्दनाक मोड़ ले लिया था, जब उन्होंने एक ही वर्ष के अन्दर अपने पति और ससुराल वालों को खो दिया. इसके बाद, अपने दो छोटे बेटों की पूरी ज़िम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गई.
उनके पास खेती करने के लिए कोई ज़मीन तक नहीं थी. ऐसे में, सोमारी बाई ने जंगल से महुआ फूल, तेन्दू पत्ते और जंगली फल इकट्ठा करके स्थानीय बाज़ार में बेचकर जीविका चलानी शुरू की. लेकिन आमदनी इतनी कम थी कि बच्चों को पढ़ाना या ठीक से खाना खिलाना भी मुश्किल था.
वह याद करती हैं, “मेरी आमदनी इतनी कम थी कि न बच्चों की पढ़ाई हो पाती थी और न पेट भर पाता था.“
यूएनडीपी से मिला समर्थन
सोमारी बाई जैसी आदिवासी महिलाओं के लिए भूमि का स्वामित्व एक बड़ी चुनौती है. खेतीबाड़ी करने के लिए ज़मीन नहीं होने के कारण, बहुत सी महिलाएँ सुरक्षित आजीविका से वंचित रह जाती हैं.
लेकिन, भारत में वन पारिस्थितिक तंत्र में आदिवासी समुदायों के योगदान को मान्यता देने वाले वन अधिकार अधिनियम (FRA) के लागू होने से नई उम्मीदें जागी हैं.
लैंगिक समानता और संयुक्त भूमि स्वामित्व पर बल देने वाले वन अधिकार अधिनियम (FRA), पूरे भारत में, विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं के लिए परिवर्तनकारी साबित हुए हैं.
यह क़ानून महिलाओं को केवल भूमि स्वामित्व ही नहीं, बल्कि सुरक्षा, गरिमा और नेतृत्व के अवसर भी प्रदान करता है.
यूएनडीपी के समर्थन से वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन के तहत, 22 लाख से अधिक वन अधिकार पट्टे दिए जा चुके हैं, जिससे सोमारी जैसी महिलाओं के अनगिनत परिवारों को मदद मिली है.
सोमारी को वन अधिकार अधिनियम के तहत 2.5 एकड़ वन भूमि का मालिकाना हक़ प्रदान किया गया.
उनके जीवन में यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था. पहली बार, सोमारी को अपनी जिन्दगी संवारने के लिए एक मज़बूत आधार मिला. वह गर्व से बताती हैं, “जब मुझे मेरी ज़मीन मिली, तो मैंने कुछ अलग करने का फ़ैसला किया.”
सोमारी ने, अपने प्रयासों से ख़ुद एक बोरवेल (बिजली से संचालित कुँआ) खोदकर, धान और सब्ज़ियों की खेती शुरू की. वो इस इन फ़सलों की उपज को, सरकारी मंडियों में बेचने लगीं.
इस क़दम ने उनका जीवन ही बदल दिया. उनकी वार्षिक आमदनी 25 हज़ार रुपए से बढ़कर 1 लाख 20 हज़ार रुपए तक पहुँच गई.
वह इस नई स्थिरता के साथ, अपने परिवार को बेहतर सुविधाएँ प्रदान करने में सक्षम हुईं और अपने बेटों के भविष्य को सुरक्षित कर सकीं.
सोमारी बाई कहती हैं, “मेरी ज़मीन ने मुझे सपने देखने का हौसला दिया. आज मेरे पास जो कुछ भी है, उसका आधार यही भूमि है.”
जब महिलाओं को पहुँच हासिल होती है
सोमारी की आपबीती इस बात का प्रमाण है कि जब महिलाओं के पास पहुँच और साधन होते हैं तो वो क्या-कुछ नहीं कर सकती हैं. उन्होंने भूमि अधिकारों के साथ, ना केवल अपनी आजीविका सुनिश्चित की, बल्कि अपनी समुदाय के लिए एक आदर्श बन गईं.
उनकी सफलता ने अन्य महिलाओं को वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि स्वामित्व प्राप्त करने और सतत कृषि प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रेरित किया.
सोमारी के प्रयासों ने जैव विविधता को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है. वह अपनी ज़मीन में टिकाऊ खेती के तरीक़े अपनाकर, जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास से उत्पन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, जिनसे जंगलों व पारम्परिक आजीविका के स्रोत नष्ट हो रहे हैं.
यूएनडीपी ने भूमि अधिकारों को अन्य विकास कार्यक्रमों से जोड़ने में भी प्रदेश सरकारों को सहायता प्रदान की है. इससे सोमारी बाई जैसे लाभार्थियों को अतिरिक्त मदद मिल पाई है, जिसमें बीज, खाद तथा सिंचाई उपकरण शामिल हैं.
इस समग्र दृष्टिकोण ने हाशिए पर धकेले हुए आदिवासी समुदायों को उनकी स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में सक्रिय भागीदार बनाने में मदद की है.
सोमारी कहती हैं, “जब हमारे पास ज़मीन होती है, तो हमारे पास अपने भविष्य को बदलने की ताक़त होती है.” उनके लिए ज़मीन का मालिकाना हक़ केवल स्थिर आय नहीं, बल्कि आशा रा प्रतीक है – उनके बच्चों के लिए, उनके समुदाय के लिए और स्वयं उनके लिए.